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८२४ ] [ कबीर

    निरगुण ब्रह्यकथों रे भाई, जा प्ररित सुधि बुधि मति पाई ।।
    बिष तजि रांम न जपसि अभागे, का बूड़े लालच के लागे ॥ 
    ते सब तिरे राम रस स्वादी, कहै कबीर मेड़े बकबादी ।।
    दान्दार्ण - निरमोलिक=राअमूत्य । बकवादी=ज्ञान बघारने वाले ।
    सन्दभे- कबीर निर्युण राम की भक्ति का उपदेश देते हैं ।
    भावार्थ-हे जिह्वा । तू राम के गुणी में तन्मय होकर भक्ति के आनन्द को

प्राप्त करों । रे भाई, निर्युण ब्रहा का गुणगान करो जिसका स्मरण करने से सदबुद्धि, ज्ञान तथा विवेक की प्राप्ति होती है । रे अभागे जीव, तू विषयों के प्रति आसक्ति का त्याग करके राम नाम का भजन क्यों नही करता है ? विषय-सुख के लोभ में पढकर तू भव-सागर में क्यों डूबता है ? कबीर कहते हैं कि जो व्यर्थ ज्ञान का बखान करते हैं, वे भवसागर में डूब जाते हैं और जो भगवान राम की भक्ति करके आनन्द मग्न होते हैं, वे सब भवसागर के पार हो जाते हैं (मोक्ष को प्राप्त होते है ।)

    अलंकार- (I) अनुप्रास-रसना राम रमि रस है
           (11) पदमैत्री-सुधि बुधि ।
           (111) गूढोक्ति- न जपसि अभागे, का '३ ‘ लागे ।
    विशेष---I) कबीर सचची भक्ति का प्रतिपादन करते हैं । व्यर्थ ८ की शास्त्र-

चर्चा को व्यर्थ बताते हैं 1 वे तो यत्र बार कहते हैं कि "पडित वाद वदै सो भदुठा है।"

    कबीर कथनी को त्याग कर करनी के द्वारा ही उद्धार की कल्पना

करते हैं ।

   (11) कबीर के राम निरगुण निराकार परमब्रह्म हैं, दाशरथि अवतारी

राम नहीं । "

                           ( ३७६ )
  निबल सुत रुयों कोरा, 
               रांम मोहिं मारि कलि विष बोरा ।।टेका।
     उन देस जाइवो रे बाबू, देखिबो रे लोग किन किन खेबू लो ।।
     उडि काना रे उन देस जप, जासू' मेरा मन चित लागा ली । ।
     हाट दूँढि ले, पटनपुर, दु द्वि ले, नहीं गांव के गोरा लो ।।
  जलविन हंस निसह विन रदू कबीर की स्वीमी पाइ परिकैमनैबूसो । ।
     शध्यार्थ--वानेवरक=, निर्बल । कोरा = गोद । वाबू=भद्र पुरुपो । खेबूलो८

खाते है, रहन-सहन से तात्पर्य है । अवा-बाजार । पटनपुर-चनगर है गोरा-मड गौना-किनारे की सडक । रबूवा-न्द्र रवि: सूर्य । मानैबूलप-मना लेना ।

संदर्भ-कबीर की जीवात्मा परमात्मा) की प्राप्ति के लिए अपनी आतुरता व्यक्त मारती है ।

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