यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८२२] [कबीर

        चालि चालि मन माहरा, पुर पटण गहिये|
        मिलिये त्रिभुवन नाथ सुॱ, निरभै होइ रहिये|| 
        अमर नहीॱ ससार मै, बिनसै नर देही|
        कहै कबीर बेसास सुॱ, भजि रांम सनेही|| 
   शब्दाथे----औघट====अवघट,ढुग़म| प्रअलै==सताते है|पेडा पडॅ==डकेती

पडती है| जमदानी==यमराज की सेना| माहरा==कुशल| बेसास=विश्वास|

   सन्दभै--कबीरदास कहते है कि जीवन रुपी जगल को पार करने के लिए 

राम-नाम ही एकमात्र अवलम्बन है|

   भावाथे--साधनाहीन जीवन व्यतीत करना इतना ही कठिन एक भयपद है जितना किसी बिहाड स्थान पर रात्रि व्य्तीत करना अथवा किसी दुभ्र्ग घाट पर किसी नदी मे स्नान करना । इस जीवन के जगल मे हिन्सा , विषय - लोलुपता एव अहकार रुपी सिह , बाघ और हाथी घूमते रहते है । साथ ही यह जीवन मागृ बहुत लम्बा भी है । इस जीवन के जगल मे कामादिक द्वारा रात दिन डकैती पडती रहती है । (विषय विकार प्रतिक्षण हमारे चैतन्य स्वरुप को तिरोहित करते रहते है । यहाँ यमराज की सेना हमारी आयु - रुपी सम्पति को सदैव क्षीण करती रहती है ।जो शूरवीर धैयृवान एव सत्यनिष्ट है ,वे हि  इस लूट मार से बच पाते है ।अतः हे कुशल मन ,तू साधना के माग पर निरन्तर अग्र्सर होता रहे और ज्ञान -भक्ति के नगर मे पहुँच जा । वहाँ त्रिभुवन नाथ से मिलेगे और संसार के भयो से मुक्त होकर रहेगे| इस स्ंसार मे कोई भी सदैव नही बना रहा है--- संसार का प्रत्येक प्राणी एव पदाथे नश्वर है| यह मानव शरीर नष्ट होता ही है| कबीर कहते हैं कि इस कारण विश्वास पुवैक सबसे प्रेम करने वाले राम का भाजन करते रहो| 
   अलकार----(I) साग रुपक---जीवन माया और जगल की माया
                रुपक बांधा है| 
            (II)    पुनरुत्कि प्रकाश"""""चालि चालि |
   विशेष----(I) प्रतिको का सफल प्रयोग है| जंगल, सिंह, बाघ,गज 
   (II) स्ंसार के प्रति विरत्कि का प्रतिपाद्न है|
                     राग ललित 
                          (३७४)
राम ऐसो ही जांनि जपौ नरहरी, 
                 माधव मदसुद्न वनवारी||टेक||
अनदिन ग्यान कथै घरियार, धूवां  धौलह रहै संसार ||
जैसै नदी नाव करि संग, ऐसै ही मात पिता सुत अग ||
सवहि नल दुल मलक लकीर, जल वुदवुदा ऐसो आहि सरीर||
जिम्या रांम नांम अभ्यास,कही कबीर तजि गरभ् बास||