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अलंकार -(i)साग रुपक''''सोभाग्यवती नारि एवं जीवात्मा के रुपक
का निर्वाह है| (ii) वऱोक्ति--पीव'''उधारा| (iii)गुढोक्ति--कासनि लेऊ| (iv)पुनरुतिक प्रकाश-बन बन| (v)विरोधाभास की व्यंजना--पीव मिलै'''रोऊ| विशेष---(i)प्रतीको का प्रयोग है--परोसनि,कंत,लरिका,सुहागिन| (ii) सुफि शैली के दाम्पत्य प्रेम का वर्णन है| (iii) इस पद मे कबीर भक्ति-क्षेत्र का अतिऋमण करके प्रेम के क्षेत्र मे चले जाते है|अतएव रहस्यवाद की मार्मिक व्यजना दिखाई देती है|प्रेमि प्रिय पर एकाधिकार चाहता है|प्रेम का क्षेत्र एकान्त होता है|कबीर की जीवात्मा भी यही चाहती है कि प्रिय के ऊपर मेरा एकाधिकार रहे|प्रिय पर पूर्ण स्वत्व स्थापित करने की मन स्थिति का मार्मिक शब्दो मे उद्घाटन किया गया है| (iv)पीव क्युं-- उधारा|लौकिक दृष्टि से अर्थ करने पर यह क्थन, उन लोगो पर प्रकार का व्यंग्य करता है,जो दान द्क्षिणा लेकर दूसरो के नाम भजन-पुजन,मंत्र-जाप आदि करते है|टीक ही है--बिना मरे,स्वर्ग के दर्शन नही होते है|" (v)माशा--१ तोले का १२ वो भाग| (vi)रत्ती--१ माशे का र्वा भाग| (vii) माशा माँगना और रत्ती न देना--लोकोक्ति है|यहां अर्थ इस प्रकर होगा--माया का यह प्रयत्न करना कि जीवात्मा परमात्मा से बहुत दूर तक पृथक रहे तथा जीवात्मा का यह सकल्प कि वह क्षण भर के लिए भी उनसे विलग नही होगी| पडोसिन--माया के साथ जीव का साहचर्य है,परन्तु माया पराई है--- जीव की नही|जीव के साथ माया का सम्बन्ध केवल अज्ञान के कारण है--वह सम्बन्ध पारमार्थिक एवं सच्चा सम्बन्ध नही है|इसी से वह पडोसिन है| (ix) लरिका--कर्म जीवात्मा के प्रयास से उत्पन्न होता है|इसी से वह जीवात्मा का लडका है|भक्ति के परिपाक के लिए सांसारिक कर्म का त्याग आव्श्यक है|वह माया ही को सोपे जा सकते है| (x) जे कछु' तोरा-- च्ंतन्य स्वरुप आत्मा और माया का सम्बन्ध मुधा होते हुए भी शश्वत है|भक्ति के उल्लास आदि वृत्यात्मक अनुभूति का सम्वन्ध अन्त करण (माया)और चैतन्य (आत्मा) दोनो के साथ रहता है|इसी से आधा तोरा'(माया का) कहा गया है| (३७२) रांम चरन जाकै रिदै वसत हे, ता जन को मन क्युं डोले|| मानो आठ सिध्य नव निधि ताकं,हरषि हरषि जस बोले ||टेक||