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एक सुहागनि जगत पियारी, सकल जीव जांत की नारी ॥टेक॥ खसम मरै वा नारि न रोवै, उस रखवाला औरै होवै ॥ रखवाले का होइ विनास,उतहि नरक इक भोग विलास ॥ सुहागनि गलि सोहै हार, संतनि विख बिलसै संसार ॥ पीछे लागी फिर पचिहारी,सत की ठठकी फिरे बिचारी॥ संत भजै वा पाछी पडै, गुर के सबदं मारयौ डरै ॥ साषत कै यहु प्यंड परांइनि, हमारी द्रिष्टि परै जैसे डांइनि॥ अब हम इसका पाया भेद, होई कृपाल मिले गुरदेव॥ कहै कबीर इब बाहरि परी, संसारी कै अचल टिरी॥