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८०६] [कबीर

     शब्दार्थ--भीत= दीवाल। टाटी=परदा। इंचेरा=ऊँचहरा=ऊँचा घर, छते।
     संदर्भ--कबीर जीवन की क्षणिकता का वर्णन करते हैं।
     भावार्थ-- मैं ढीवार अथवा परदा (ओट) किस लिए बनवाऊँ? पता नही इस शरीर की मिट्टी कहा गिरेगी? मै मन्दिर और महल किस लिए बनवाऊँ? मरने के बाद तो यह शरीर उनमे एक क्षण भी नही रहने पाएगा। ऊँची-ऊँची छते भि मैं किस डालू? मेरा यह शरीर तो केवल साढे तीन हाथ लम्बा है। कबीरदास कहते है कि मनुष्य को एस शरीर के प्रति अभिमान एव ममता करके व्यर्थ स्थान घेरने का प्रयत्न नही करना चाहिए;गुजर भर के लिए जितना स्थान पर्याप्त हो, बस उतनी ही जगह लेना चाहिए। (मरने पर तो केवल कब्र मे ही सोना है।)
     अलंकार -- (i) गूढोक्ति-- काहेमाटी।
     विशेष-- (i) 'निर्वेद'की व्यंजना है।
     (ii) जीवन की क्षणभगुरता की चर्चा द्वारा अपरिग्रह का उपदेश है।
     (iii) समभाव देखिए--
         कहा चिणावै मेडिया, लाँबी भीति उसारि।
         घर तो साडे तीन हाथ, घना त पौनि चारि। (कबीरदास)
                [राग विलाबल]
                    [३६२]
  बार बार हरि का गुण गावँ,
                गुर गमि भेद सहर का पावै ॥टेक ।
  आदित करै भगति आरंभ,काया मंदिर मनसा थभ ॥              
  अखंड अहनिसि सुरष्या जाइ,अनहद बेन सहज में पाइ ॥
  सोमवार ससि अमृत झरै, चाखत बेगि तप निसतरै ।
  वाणीं रोक्यां रहेइ दुवार, मन मतिवाला पीवनहार ॥
  मगलवार ल्यौं माहींत, पंच लोक की छाडौ रीत ।
  घर छाडै जिनि बाहरि जाइ, नही तर खरौ रिसावै राइ ॥
  बुचवार करै बुधि प्रकास, हिरदा कवल मै हरि का वास ।
  गुर गमि दोऊ एक समि करै, ऊरध पंकज थै सूधा घरै ॥
  ब्रिसपति बिषिया देइ बहाइ, तोनि देव एकै सगि लाइ ।
  तोनि नदी तहाँ त्रिकुटी माहि, कुसमल धोवै अह निसि न्हाहि ।।  
  सुक्र सुधा ले इहि व्रत चढे, अह निसि आप आप सुँ लडै ।
  सुरषी पंच राखिये सवै तौ दुजो द्रिष्टि न पैसे कवै ॥
  थावर थिर करि घट मै सोइ, जोति दीवटी सेल्है जोइ ।
  वाहरि भीतरि भया प्रकास तहाँ भया सकल करम का नास ॥