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ग्रन्थावली ] [८०५ सन्दर्भ- क्बीर ह्ठ्योगी साधाना का वण्रन करते है। भावाथ्र- रे भाई, इस कठिन शरीर रूपी किले पर किस प्रकार विजय प्राप्त की जाए? इसको दो दीवाले तीन खाईयाँ घेरे हुए है। दो दीवाल और तीन खाई का अर्थ पच कोष भी हो सकता है और "द्वैत भाव एव तीन गुण भी" हो सकत है। इस प्रकार यह पाँच आवरण वाला किला है। इसके काम रूपी किवाड हैं, सुख-दुख ही पहरेदार हैं तथा पाप और पुण्य इसके दरवाजे हैं। क्रोध यहा का प्रधान है और लोभ अपनी तृप्ति के लिए बहुत सघर्ष करता रहता है। मन रूपी नायक ही इस शरीर-रूपी दुर्ग का राजा है। इद्रिय- स्वाद ही इस किले के राजा का कवच है। इसने ममता का शिरस्त्राण पहन रखा है।मन-रूपी राजा ने कुबुध्दि का धनुष चढा रखा है। इसने म्म्ता का शिर्स्त्राण पह्न रखा है। इसके शरीर रूपी तरकश में तृष्णा के तीर भर रहे हैं और इस किले में ढूढने पर भी सुबुध्दि न्हीं मिलती है। इस दुर्ग को जीतने का उपाय यह है कि सुरति रूपी तोप की नाल में ईश्वर प्रेम का पलीता से ज्ञानाग्नि लगाकार मैंने आत्म-बोध का गोला चालाया और इस प्राकार 'ब्रह्माग्नि लेकर मैंने इस किले मे पलीता लगाया और एक ही प्रहार से इस किले को ढा दिया।(गिरा दिया)सत्य-निष्ठा एव सतोप की सेना को लेकर जब मैं लडने लगा, तब मैंने किले के दसो द्वार(नवद्वार शरीर के तथा ब्रह्मरन्ध्र) तोड डाले अर्थात् शारीरिक सीमाएँ समाप्त होकर आत्म-चेतना का विश्व चेतना मे लय हो गया। साधु-सागति और गूरु की कृपा के सहारे मैंने अहकारी दुर्गपति मन को अपने वश मे कर लिया। भागवत कर्मों की भीड तथा नाम स्मरण की शक्ति के द्वारा मैंने काल का बन्धन भी तोड दिया। भगवान के दास कबीर् ने इस शरीर-रूपी गढ पर आकृमण किया और अविनाशी भगवान ने उसको इसका राज्य दे दिया और अर्थात् अमर पद प्रदान कर दिया।


  अल्ंकार- (1) रूपकातिशयोक्ति--गढ।
         (11) सागरूपक--सम्पूर्ण पद। शरीर और गढ के रूपक की निवहि है।
        (111) छेकानुप्रास की छुटा- काम किवाड, पाप पुनि, मर मँवासी ,स्वाद सनाह, कुवुधि कमाण। त्रिसिना तीर।प्रेम पलीता, गोला ग्यान, सत सतोष,दस दरवाजा,साध सगति, भगवत भीर, सकति सुमिरण,क्टी काल।

विशेष--(1) विषयी जीवन और ज्ञान एव भकति साधना का जीवन- दोनो का एक साथ वर्णन किया गयाय है।

     (11) काम किवाड-- इस शरीर को वृत्तियो एव विषयो के प्रती आंकर्पण दोनों ही इच्छा द्वारा नियत्रित होते हैं। इसी से 'काम' को किवाड कहा है।
     (111)दुख-सुख दरबानी-- वृत्तियाँ सुखात्मक एव दुखात्मक होती हैं। सुख दुख के आदेश से ही वृत्तियाँ के आने-जाने की कल्पना की गई है।