मूँड़ मुँडाए हरि मिलै तो कौन न लेय मुड़ाय।
बार बार के मूड़ते भेड़ न बैकुन्ठ जाय॥
बुद्धितत्व के सम्बन्ध मे दो उध्दरण देकर दूसरे प्रसंग मे कबीर के काव्य पर विचार करेंगे:-
हरती चढ़िए ज्ञान को, सहज ढुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है भूकन दे भक्त मारि॥
पाणी केरा पृतला राखा पवन संवारि।
नांनां वाणी बोलिया, ज्योति घरी करतारि॥
बुद्धितत्व के समान कबीर के काव्य मे भावना-तत्व की भी प्रचुरता है। यदि कबीर कोरे बुद्धिवादी होते तो उनकी रचनाओ मे भावना पक्ष का अभाव होता। कबीर के काव्य मे जो रसात्मकता है उसका प्रमुख कारण भावना-तत्व का विद्यमान होना है। श्रृंगार रस की जो निर्मल धारा कबीर मे उपलब्ध होती है वह भी प्रस्तुत कथन की पुष्टि करती है। कबीर की रचनाओ मे उपलब्ध यह श्रृंगार रस और भावना तत्व मानव को वासना के पाप पंक से निकाल कर निर्मलता के सच्चे रूप के दर्शन कराने मे सहायक है। इस भावना मे सत्य की अनुभूति और ज्ञान की गम्भीरता समन्वित है। उदाहरणथं यहाँ कतिपय साखियॉं उद्धृत की जाती है। इनमे भावनातत्व की गम्भीरता देखिए:-
नैनों की कोठरी पुतरी पलंग बिछाय।
पलकों की चिक डारि कै पिय को लिया रिझाय॥
प्रीतम को पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस।
तन में, मन में, नैन में,ताको कहाँ संदेस॥
प्रीति जो लागी घुल गई, पैठि गई मन माँहि।
रोम रोम पिउ पिउ करै मुख की सरधा नाहिं॥
प्रेम छिपाया ना छिपै जा घट परगट होय।
जो पैं मुख बौलै नहीं तो नैन देत हैं रोय॥