७६६] [कबीर कर कहेते हैं कि इसीलिए हे जीव, तुम भगवान मे निरन्तर अपनी लो लगाए रहो । (यही कल्याण का मार्ग है)
अलंकार--(१) रूपकातिशयोक्ति--स्यध, वन, स्याल । (२) गूढोक्ति--किन सुमिर । (३) विरोधाभास--उलटि स्याल खाइ; जीत्या, तिर, जीवत ही मर । विशेष--(१) नाथ पथी प्रातीको का प्रयोग है । (२) यह पद उलटवाँसी की शैली पर रचित है । (३) 'अहकार' के रहते हुए प्रभु कसे आ सकते है ? प्रेम-गली अत्यन्त सकरी है । इसमे 'मैं' ओर 'तु' मे एक ही रह सकता है । प्रेम गली अति साँकरी तामे दो न समाँय । रहिमन भरी सराइ लखि लोट मुसाफिर जाय । (३५०) जागि रे जीव जागि रे । चोरन को डर बहुत कहत हैं, उठि उठि पहरै लागि रे ॥टेक॥ ररा करि टोप मसां करि बखतर, ग्यान रतन करि षाग रे । ऐसै जो अजराइल मारै, मस्तकि आवै भाग रे ॥ ऐसी जागणीं जे को जागै, ता हरि देइ सुहाग रे । कहै कबीर जाग्या ही चाहिये, क्या गृह क्या बैराग रे ॥ शब्दार्थ--बखतर==कवच । वाग==खड्ग, तलवार । अजराइल==अजरा-
डल= मृत्यु का देवदूत ।
सन्दर्भ--कबीर कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव विवेकपूर्ण आचरण करना
चाहिए ।
भावार्थ--रे जीव, जागो, जाग जाओ । इस जीवन मे (काम श्रोध, लोभ,
मोह मत्सर) रूपी चोरों का डर बहुत कहा जाता है । इसलिए तू उठ ओर उठकर पहरा लगा जिसमे वोध वृत्ति रूपी धन की रक्षा होती रहे ।) इसके लिए तू राम के नाम का इस प्रकार महारा ले--रकार का शिरस्त्राण बना तथा मकार का कवच बना । ज्ञान रूपी रत्न की तलवार बनाले । इससे अज्ञान रूपी मृत्यु के देव दूत पर तुम ऐसा वार करो कि अहकार-रूपी उसका मस्तक पर तुम्हारा अधि- कार हो जाए । ऐसी जाग मे जो कोई जागता है अर्थात जाग कर जो कोई इस प्रकार सावधान रहता है, उन पर भगवान अपने सोभाग्य की कृपा करते हें । तात्पयं यह हे कि जो आत्मा-सुन्दरी इस प्रकार की ज्ञानावस्था को प्राप्त करती है, उनको भगवान पति रुप मे प्राप्त होने हें अर्थात आत्मा का परमात्मा मे, सात का अनन्त मे तय हो जाता है । कबीर कहते हैं कि चाहे व्यत्ति गृहस्थ हो अथवा विरत्तू, उसको सदैव विकार रूपी चोरो के प्रति सावधान रहना ही चाहिए ।