यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३७)

था। ऐसे वर्ग के लिए बौध्दिक समस्याओ को रोचक एवं सरल ढंग से प्रस्तुत करना ही उचित था। कबीर ने यही किया। उपर्युक्त समस्याओ तथा विषयो को लेकर कबीर ने अनेकानेक ऐसे पदो की रचना की है जो अपनी मौलिकता को खोये बिना रोचकता के रंग मे अनुरंजित हैं। बुद्धितत्व प्रधान होते हुए भी कबीर वादो के पीछे नही लगे। केशवदास के समान न उन्होने अपने को भक्त कवि प्रमाणित करने के लिये विज्ञान गीता की रचना की न देव के समान भक्ति के रग-पुंह मे पगडी रगने की आवश्यकता का अनुभव हुआ। उनकी दार्शनिक तत्व विवेचना मे हृदय का योग है। सत्य यह है कि कबीर की तुलना मे इतनी सरसता, सरलता तथा भाव-पूर्ण शैली मे दार्शनिक एव आध्यात्मिक तत्वो की विवेचना और अभिव्यंजना और कोई कवि कर ही न सका। कबीर ने बुद्धि को तर्कपूर्ण कसौटी पर भावना को कसा। प्राचीन परम्पराओ, बहुदेवोपासना, मूर्ति पूजा, जप, तप, तिलक, माला आदि की उपयोगिता पर कबीर ने तर्कपूर्ण शैली मे विचार किया। कबीर की निम्न लिखित साखियो पर ध्यान दीजिए-

( १ )

जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तत कथा गियानी॥

( २ )

हेरत हेरत हे सखी रहा कबीर हेराइ।
समुन्द समाना बूंद में सो कत हेरा जाइ॥

( ३ )

झल उठी झोली जली, खपरा फूटिम फूति।
जोगी था सो रमि गया आसिणि रही विभूति॥

( ४ )

जल भर कुम्भ जलै बिच परिया बाहर भीतर सोई।
तको नाम कहन को नांहीं दूजा भोखा होई॥

( ५ )

पंच तत्व का पुतरा जगति, रची में कीव।
मैं तोहि पूछो पंडिता, शब्द बड़ा की जीव॥

कबीर के काव्य में बौद्धिक तत्व किन कोटी का है इन उदाहरणो से स्पष्ट हो जायेगा। स्मरण रखना चाहिए इस साहित्य की रचना निम्न् वर्गो के लिए हुई थी जो साहित्यकारो को सुवेदना की परिधि से सदैव ही वंचित रहे हैं। ऐसे ही व्यक्तियो से कबीर कहते हैं कि :-