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ग्रन्थावली]
विशेष -(1)वाह्माचार का विरोध व्यक्त है| (ii)'कोरी'शब्द मे व्यजना है|जुलाहो को तुच्छ समझने वाले सवर्णं वर्गं से कबीर कहते है कि जिस समुदाय को तुम तुच्छ समझते हो,उसी 'कोली' वर्गं मे उत्पन्न कबीर तुम्हारे सम्मुख एक महान सत्य को प्रकट कर रहा है| (३४७) पाँणी थै प्रगट भई चतुराई, गुर प्रसादि परभ निधि पाई||टेक || इक पांणी पाणीं कूं धोवै,इरु पाणीं कू मोहै || पांणी ऊंचा पांणी नीचा,ता पांणी का लीजै सीचा || इक पांणीं थे प्यड उपाया,दास कबीर रांम गुण गाया|| शब्दार्थ -पाणी= जल ,लक्षण से प्रभु, भगवान को नारायण कहते है (नार = जल )
चतुराई=ज्ञान |व्यड=शरीर |उत्पन्न किया |
सदर्भ् -कबीरदास प्रभु की महिमा का वर्णन करते है | भावार्थ -प्रभु रूप जल से ही ससार का समस्त ज्ञान उत्पन्न हुआ है |इस परम ज्ञान रूपी खजाने को मैंने गुरू की क्रपा है|भक्ति रूपी जल विषय -वासाना रुपी जल के मैल को नष्ट कर देता है ,माया रुपी जल जीवात्मा रुपी जल को मोहित करता है |जल ही उपर है,जल ही निचे है |अथवा ज्ञान रूपी होकर जल ही व्यक्ति को उच्च पद प्रदान करता है और माया रुप होकर वही व्यक्ति को पतन के गन्त मे गिरा देता है |इसी सर्वव्यापी परम तत्व रुपी जल के व्दारा अपने अन्त कारण को अभिसिंचित करना चाहिए |पानी (वीर्य) की एक वूद मात्र से इस शरीर की उत्पत्ति होती है |
इस प्रकार जल की माहिमा को सनभ्त करके कबीर जल रूप प्रभु का गुणगान करता है |
अलकार -यमक -एक ही शब्द 'पाणी' को विभिन्न प्रतीकाथं होने के कारण |
(३४५) भजि गोब्यंद भूलि जिनि जाहु , मनिसा जनम कौ एही लाहु ॥टेक ॥ गुर सेवा करि भगति कमाई, जौ तै मनिषा देही पाई ॥ या देही कूँ लौचै देवा ,सो देही करि हरि की सेवा ॥ जब लग जुरा रोग नही आया ,तब लग काल ग्रसै नहिं काया ॥ जब लग हीण पढै नही बांणी ,तब लग भजि मन सारगपांणी ॥ अब नहिं भजसि भजसि कब भाई,आवैगा अत भज्यौ नहीं जाई॥ जे कछू करौ सोई तत सार ,फिरि पछितावोगे वार न पार ॥