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ग्रन्थवली] [७७७ जन्म मृत्यु आगि की धारणा ही क्योकर की जाए?अत जन्मदिक, लोक-पर्लोक मे जाना आदि प्रतीति मात्र है। कहै कबिर माही।जीव की पृथक सत्ता केवल मिथ्या प्रतीति मात्र है।पर वह माया के ससर्ग से पृथक लगना है।शिद्ध आत्मतत्व के लिय जन्म-मरण शब्दो क व्यवहार व्यर्थ एव अनुपयुक्त है।प्रण तथा इन्द्रिय-व्यवहार से असपृक्त होने के कारण साधक जीव सामान्य व्यवहार मे जीवित नही है।परन्तु सन्सार का व्यवहार करते हुए प्रतीत होने के कारण मरे हुए भी नही कहा जा सक्ते है।इसी से न हम जीवित है और न मरे हुओ मे ही है।

                               (३३२)

हम सब माँहि सकल हम माँहि,

             हम थे और दुस्ररा नाही ॥टेक।

तीनि लोक मै हमारा पसारा, आवागमन सब खेल हमारा॥ खट दर्सन खहियत हम भेखा, हमही अतीत रूप नही रेखा॥ हमही आप कबीर कहावा ,हमही अपनां आप लखावा॥ संदर्भ- कबीर उसे अवस्था का वर्णन है जब अश-अशी,भक्त-भगवान,आत्मा-परमत्मा मे कोइ अन्तर नही रह जाता है। भवर्थ-हम सभी मे हैं और सब हम मे है। हम से भिन्न और कोइ नही है। तीनो लोको मे हमारा ही प्रसार है तथा यह जन्म-मृत्यु मेरी लीला मत्र है।छ दर्शन हमरे ही वेष कहे जाते है अर्थथ छ हो दर्शनो मे हमारा (शुद्ध चंतन्य)के ही विभिन्न रूपो क वर्णन है।हम अर्थत चंतन्य सबसे परे का तत्व है।हमारा न कोइ रूप है और न कोइ आकार है।हम स्वयं ही कब्बीर कहे जते है और हमी ने अपना आत्मा तत्व विभिन्न रूपे मे दिखाया है। शब्धर्थ-अलंकार-यमक-आप-आप विशेष-(१)तीन लोक-आकाश,पृथ्वी,पाताल (२)षटदर्शन-साख्य,योग,न्याय, वंशोषिक,मीमासा और वेदात। (३)उस स्थिथी क वर्णन करता है जब साधक 'अह' ब्रह्नास्मि का उगघोप कर उठता है। (४)अद्ध्ंतवाद का सुन्दर प्रतिपदान है। (५)वह परमतत्व सर्वथा वर्णनातीत है। इसी से विभिन्न प्रकार से उसका वर्णन करके वणी की असमर्थता प्रकट की गई है।

                              (३३३)

सो धन मेरे हरि क नांउ,

          गाँठि न बाँघ्यॅ बेचि न खंउ ॥टेक।

नांउ मेरे खेती नांउ मेरे बारी, भगति करौ मै सरन तुम्हरी॥ नांउ मेरे सेवा नांउ मेरे पुजा, तुम्ह बिन और न जंनो दुजा॥