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७७४ ] [ कबीर

           () विरोधाभास-करणी तें कारण का मिटना,करणी तें
               कारण का नास । उपजी च्यत-गई । ससिहर-गहे ।
           () विषय-पावक माहि पुहुप प्रकास,पुहुप माहि पावक
              प्रज रै ।
           () वृत्यानुप्रास-करणी किया करम, पावक पुहुप प्रकास ।
              पुहुप पावक प्रजरै पाप पुन्य, भी भ्रम, भागा ।
           () रूपक-वास-वासना, भौ भ्रम ।
           () श्लेष -आघनत
           () यमक-कुल कुल, च्यत च्यत
           () भेदकातिशयोक्ति की व्यजना-ऐसी भई ।

विशेष-() ईस पद मे उलट बासी शैली की प्रतीकात्मकता दर्शनीय है । () प्रतीको के माध्यम से परम तत्व की अनुभूति दशा की सुन्द्र है । () इस पद मे कायायोग की साधना का सुन्दर है । () चऋ-देखे टिप्पणी पद सख्या ४,२१०

  विकास देखे टिप्पणी पद सख्या ४ ।
  उलट बासी-देखे टिप्प्णी पद स ८०

शून्य गगन तथा निरजन--देखे टिप्पणि पद स १६४ । चिंतामणि-देखे पद स० १२३ । समभाव के लिए यह पद हष्टव्य है-

          अबलौं नसानी, अब न नसंहौं ।
 राम कृपा भव-निसा सिरानी, जोग पुनि न डसंहौं ।
 पायो नाम चारुचिंतामनि, उर कर तें न खसंहहौं ।
 स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, वित कंचनहिं कसंहौं ।
 परवस जानि हंस्यौ इन इन्द्रिन, निज बस हुं न हैसंहौं ।
 मन मधुकर पन कं तुलसी, रघुपति-पद कमल वसंहौं ।
                                       (गोस्वामी तुलसीदास)
 () इस पद की कई पंक्तियो के श्लिष्ट प्रयोग से ज्ञानयोग और कायायोग

दोनो का अथ निकलता है । परंतु विशेषता यह है कि दोनो का प्राप्य भ्रम नाश, ज्ञान तथा ईश्वर पेम है ।

                      (३३०)
   है हजूरि क्या दूरि बतावै,
              दुंदर वांघ सुंदर पाँ ॥टेक॥
 सो मुलनां जो मन सू लरै, अह निसि काल चक्र सू भिरै ॥
 काल चक्र का मरिद मांन, तां मुलना कूं सदा सलाम ॥
 फाजो सो जो काया विचारं, अहनिसि व्रहा अग्नि प्रजारै ॥