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ग्रन्थावली ] [ ७७३

और ज्ञान रूपी साधना की अग्नि मे अनासक्ति का आनन्द रूपी पुष्प विकसित हो गया । अनासक्ति के इस पुष्प के मध्य ज्ञान की अग्नि जलती है । इससे पाप-पुण्य दोनो ही प्रकार की फलासक्ति भ्रमरूप होकर समाप्त होगई है । उस कमल की सुगन्ध के प्रकट होने से समस्त विषय-वासना समाप्त होगई है और कुल सासारिक वन्धनो को समाप्त करके पूर्ण ज्ञान का उदय हो गया है । चिंतामणि स्वरूप भगवान का वोघ जाग गया है और सासारिक चिन्ताएँ समाप्त होगई है । इससे कुछ ऐसी अनोखी बात होगई है कि सासारिक भ्रम दूर हो गया है । इन्द्रियो के प्रवाह (विषयासक्ति) की गगा उल्टी होकर (विषयो से पराड मुख होकर) हिमालय पर्वत (उद्गम स्थल) की ओर चल दी है, अथा॔त् इन्द्रियाँ अन्तमुखी होकर अपने मुलभूत कारण शुध्द चैतन्य की ओर अभिमुख होगयी हैं । जड माया (सासारिक विषय-वासनाऔ की प्रवृत्ति) जो अभी तक वहिमुख थी, अब अन्तमुख होकर ज्ञान और भक्ति मे समाहित होगई है । भक्त कबिर उस रहस्य का उद्घाटन करते हुए इस प्रकार कहते हैं कि इस स्थिति के प्राप्त होने पर चन्द्रमा उलट कर राहु को ही ग्रस लेता है अर्थात चैतन्य अपने आपको आवृत करने वाले अज्ञान को खा जाता है ।

      काया योग परक अर्थ-एक ऐसा आश्चर्य घटिन होगया है कि योग की 

साधना से जन्म-मरण का मूलभूत कारण समाप्त हो गया । इसेसे कर्म के बन्धन भी समाप्त होगये । मूलाघार चऋ की चण्डाग्नि द्वारा विभिन्न चऋ विकसित होगये उनमे स्फूर्ति आगई । चऋ तेज युक्त हो गये और इससे पाप एव पुण्य का भ्रम समाप्त हो गया । इस पक्ति का अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है कि- मूलाधार चऋ की चण्डाग्नि से सहस्त्रार कमल विकसित हो गया । इस कमल के निरजन रूपी परमतत्व अग्निवत् प्रज्वलित हो गया है और पाप-पुण्य का भ्रम समाप्त हो गया है ।

       इस कमल मे निकली हुई सुगंध ने सासारिक वासनाओ का कल्मष धो डाला

है । अथवा समस्त वासनाओ को समाप्त करके इन विभिन्न कमल-चऋो की सुगध प्रकट हुई है । अब पुर्ण तत्व का प्रकाश हो गया है तथा ससार मिट गया है। साधना से प्राप्त ज्ञान-रूपी चिन्तामणि के प्राप्त होने पर साँसारिक चिन्ताओ से मुक्ति मिल गयी है और सबसे विचित्र बात यह हुई कि सासारिक सशय भी समाप्त हो गये है । कुंडलिनी मूलाधार चऋ से उत्थित होकर सहस्त्रार की ओर चल दी है तथा कुण्डलिनी रूपी पृथ्वी की शक्ति शून्य-गगन तत्व मे समाहित हो गयी है । सहस्त्रार-कमल मे उदित चन्द्रमा का अमृत विपयो के विपरूप राहु को आत्मसात् कर रहा हे अर्थात् अमृत्व पूर्ण आत्मानुभव मोह को नष्ट कर रहा है । कबीरदास ने ऐसे ही कायायोग के रहस्य को स्पष्ट किया है ।

     अलकार-(।) रूपकातिशयोक्ति-प्राय समस्त पद-करणी, कारण,
               पावक पुहुप इत्यादि ।