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मन थिर होइत कवल प्रकासै कवला मांहि निरंजन वासै ॥ सतगुरू सपट खोलि दिखावे, निगुरा होई तो कहां बतावै ॥ सहज लछिन ले जाते उपाधि, आसण दि निद्रा पुनि साधि ॥ पुहुप पत्र जहां हीरा मणीं, कहै कबीर तहां त्रिभुवन धणीं ॥ शब्दार्थ वाइ-पाज प्राण व्य्ंद-विंदु, शरीर- गगन-शून्य, व्रह्मरन्ध्र कमल , प्रकाश-खिलता है। निरंजन- निर्गुण , सपट-संपुट उपाधि-जगत के धमं निद्रा-समाधि पुहुप पत्र- सहस्त्रदल कमल। हीरा मणी आत्मानन्द रूप व्दबहु मूल्य पदार्थ ।

    सदर्म कबीर दास कया योग का वर्णन करते है ।

भावर्थ- ये जीव, भगवान नरहरी का गम्भीर रूप से व्यान करी और अनहद शब्द का चित्तन करे । पहले पाच प्राणो के स्वरूप का अनुसञ्घान करो और शरीर की प्राणवायु लेकर ब्रह्मरन्च्र मे समाहित करो। त्रिपुती की सन्धि मै ही गगन ज्योती [ दिव्य जोती ] के दर्शन होते है । सुषुन्मा मे ऊपर की और चढने वाली प्राणवायु इडा और पिंगला नाडियो के मध्य समन्वय स्थापित कर देती है । इसके मन स्थिर होता है और सहस्त्रार कमल प्रकाशित होत है। उसी कमल मै नेराकार निरजन का निवासा है। सत गुरु इस कमल का संपुट होकर साधक शिष्य को निरंजन के दर्शन करा देता है। परन्तु जिसने गुरू से दीक्षा नही ली है, उसके एस वैषय हमैन । बताया जाये अर्थात गुरू ते बेना निरजन का दर्शन हो ही नही सकता है। अतः गुरू से दीक्षा लेकर सहज स्वरूप का साक्षात्कार करे और सासारिक उपाधियों [ स्थूल जगत के ध्रमों ] को छोड दो। आसन जमा कर बैठ जाओ और समाधिस्थों होने का प्रयन्त करो [ अज्ञान रूपी निद्रा पर अधिकार करनी की साधन करो ]। कबीर कहते है कि सहस्त्रार कमल के पत्तो के मध्य मे ही आनन्ध रूप हीरा-मणी है और वही पर त्रिभुवन पति का निवास है [ उसी परम तत्व मे ध्यान लगाओ और उसी का चिन्तन करो ।

  अलंकार- वकोक्ति-निगुर  वतावि
  विशेष नाथ सम्प्रदाय के प्रतीको का सुन्दर प्रयोग है।
  कायायोग की साधना का सुन्दर वर्णन।
  कायायोग साधन मा  है।
 पचवायु- पच प्राण। यथा प्राण अपान उदान समान और व्यान 

इहि विधि सेविये श्री नरहरी,

     मन की दुविध्या मन परहरी ॥ टेक ॥

जहां नहीं जहां नहीं तहां क जांणी, जहां नहीं तहां लेहु पछांणी ॥