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ग्रन्थावली] [७६३
(װו) हरषि सोक तीरा- प्रत्येक कार्य की परिप्रगति इष्ट की प्राप्ति(सुख) अथवा इष्ट के वियोग यव अनिष्ट की प्राप्ति (दुख)मे होती है। (װו) वीर काम क्रोधादि पर विजय प्राप्त करने के लिए साधना करने वाला ही 'वीर' है ।जैन धर्म के 'जिन'का अर्थ 'वीर' ही है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि- महा अजय संसार रिपु जोति सकय सो वीर । (रामचीरतमानस) (३२२) चलि-मेरी सखी हो, वो लगन राम राया । जब तब काल बिनासौ काया ॥ टेक ॥ जब लग लोभ मोह की दासी , तीरथ ब्रत न छुटै जम की पासी। आवैगे जम के घालैगे बांटी, यहु तन जरि वरि होइगा माटी॥ कहै कबीर जे जनहरि रगिराता, पायौ राजा राम परम पद दाता। शब्दार्थ - लगन=प्रेम। बोटी= कुचल कर । सदर्भ- कबीरदास भगवद भक्ति का प्रतिपाद्न करते है। भावार्थ- रे मेरि जीवात्मा सखी ! तु राजा राम के प्रेम मे म्ग्न हो जाओ। यह काल किसी भी क्षण इस शरीर को नष्ट कर सकता है। तुम जब तक लोभ और मोह कि दासी हो तथा वीर - व्रत आदि के फेर मे पडी हुई हो , तब तक यम के बन्धन से मुक्त नही हो सकोगी। यम दुत आएँगे और तुमको कुचल कर ( पीस-पास कर ) मार डालेगे। तुम्हारा यह शरीर जल-जल कर मिटी हो जाएगा। कबीरदास कह्ते है कि जो लोग राम के प्रेम पे अनुरक्त है, वे उन राजा राम को प्राप्त करते है जो परम पद को देने वाले है। अलकार - (१) रूपकातिशयोक्ति सखी। (२) जरि वरि , जब तब , बाटी माटी। (३) विशेषोक्ति की व्यजना तीरथ पासी। (४)वृत्यानुप्राम - पायौ, परम पद। विशेष - (१) वाह्राचार का विरोध है। (२) राम - भक्ति को महिमा का प्रतिपाद्न है। (३) सखी शब्द जीवात्मा अथवा अन्त करण की वृति के लिए उप - लक्षण है। (३२३) तू पाक परमांन्दे। पीर पैकबर पनह तुम्हारी, मै गरीब क्या गदे॥ टेक ॥ तुम्ह दरिया सबही दिल भीतरि, परमांनद पियारे। नैक नजरि हम ऊपरि नांही, क्या कमिबखत हमारे॥