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ग्रन्दावली }

       कूच मुकाम जोग के घर मे, कछू एक दिवस खटाना।
       आसन राखि विभूति साखि दे, फुनि ले सटी उडांनां॥
       या जोगी की जुगति जु जाने, सो सतगुर का चेला ।
       कहै कबीर उन गुर की कृपा थे, तिनि सब भरम पछेला ॥
    शब्दार्थ---मिलान = मिलाने की किया । असवार=जीवात्मा  रूपी सवार ।
 फुरमायस= अनुनय-विनय, प्रार्थना । करक=सेना, विकारी की सेना । गढ=शरीर

रूपी किला । फेली फेली = फेलना । बादशाह= साधक जीव । कूंच= यात्रा । मुकाम = गन्तव्य स्थान, परम पद । खटाना=कस के काम किया । फुनि=फिर । पछेला = पीछे छोड दिया । मटी = मटिया, सगाधिस्य चेतना ।

  संदर्भ--  कबीर परमपद की प्राप्त का निरूपण करते है ।
  भावार्थ --- (माया-मोह मे फॉसा हुआ ) यह जीवन एक कोश का वीहड जगल है ।  इसमे न तो कोई परमात्मा से मिलने की किया ही बताता है और न कोइ उसने मिल ही पाता है । जीवात्मा-रूपी यह घुडसवार अपनी जीवन-यात्रा मे अकेला ही है । वह ससार रूपी जगल को पार करने के लिए अनेक साधनाओ मे भटकता है । (काम, क्रोध, लोभ, मोह एव मत्सर) विकार पूरी सेना एकत्र करके जीव को शरीर- रूपी गढ मे ही घेर लेते है । गढ मे आबध्द जीव का धर्म ही अनेक

कष्टो को फेलना है । परन्तु साधक जीव रूपी राजा अपनी साधना रूपी सेना का सचय करके उस शरीर रूपी किले के घेरे को तोडकर बाहर आ जाता है अर्थात देहाध्यास एव विषयासवित को छोड देता है । इस प्रकार वह जीवन के इस सघर्ष को खेल के रूप खेलकर अपने गन्तव्य परमपव की ओर प्रस्थान कर देता है । इस यात्रा मे वह कायायोग मे निवास करता है और कायायोग की साधना मे उसको कुछ समय तक कठिन श्रम करना पडता है । उसके बाद अपने आसन पर शरीर की मिट्टी को साक्षी रूपी छोडकर वह अपनी समाधिस्य चेतना को लेकर चला जाता है । जो इस प्रकार के योग करने वाते साधक की साधना को समझता है, वही सदगुरू का सच्चा शिष्य है अर्थात सदगुरू की कृपा प्राप्त करके ही यह साधना की जा सकती है । कबीर कहते है कि उसी गुरू की कृपा से योगी साधक भ्रमो को पीछे छोड कर परम पद को प्राप्त करता है ।

        अलकार---(।) रूपकातिशयोक्ति-- पूरा पद । 
                       (॥) छेकानुप्रास-- मिलाननि मेला , असवार अकेला , फेली फेला, 
                             खेलि खेला । जोगी, जुगति । 
        विशेष---(।) जीवन-सग्राम का सुन्दर रूपक है । इस पद मे पारमायिक जीवन कम का उल्लेख है । 
               (॥) कायायोग साध्न न होकर साधन मात्र ही है।
               (॥।) गुरू की महिमा व्यजित है ।