यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ३३ )

जीवन,सत्यता एवं स्पष्ट व्यवहार उनके अन्तरंग एवं बहिरंग का सार तत्व था। उनके व्यक्तित्व का पूरा-पूरा प्रतिबिम्ब उन्केऊ सहित्य मे विधमान है। कबीर की मुक्तिया आज भी जनता मे वारम्बार उद्धत होती है,उन्की पदावली का प्रसार आज भी आकाशवाणी के द्वारा होता है। यह सब इस बात का धोतक है कि कबीर के काव्य मे कुछ ऐसी विशेषता एवं गुण है जिनकी समानता हिन्दी का कोई अन्य कवि नही कर पाता है। उनमे ऐसा अनूठापन है जिसके कारण वे किसी एक श्रेणी विशेष के कवियो मे परिगणित नही होते। उनमे कुछ ऐसा आकर्षण है जो हृदय को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।

कबीर की कविता प्रतिपाद्य मानव है। काव्य की भूमिका मे उतर कर कबीर ने मानव की खूबियो और खामियों का सूक्ष्म पर्थालोचन किया है। अपने युग मे और आज भी कबीर एकता के प्रतीक और अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार के शत्रु माने जाते है। कबीर का प्रतिपाद्य स्थूल रूप से दो भागो में विभाजनीय है। इनमें से प्रथम है रचनात्मक तथा द्वितीय आलोचनात्मक है। रचनात्मक विषयों के अन्तर्गत हमारे आलोच्य कवि ने सतगुरु नाम,विश्वास, धैर्य,दया,विचार, औदार्य, क्षमा, संतोष, दैन्य, भक्ति, मुक्ति, ज्ञान, वैराग्य, शील, विवेक, विचार, जैसे अनेक विषयों पर अपने विचारों को क्रियात्मक शैली मे व्यक्त किया है। यहाँ उनकी खण्डनात्मक प्रतिभा या विशेषता के दर्शन नहीं होते है। अपने काव्य मे उन्होने इन विषयो की महता पर ही प्रकाश डाला है और प्रेम, विश्वास एवं भक्ति के उच्चादर्शो के प्रचार एव प्रसार के लिए प्रयत्न किया है। इन विषयो के प्रतिपादन में जीवन को उदात्त भावो की ओर ले जाने का संकेत है। ये प्रसंग उनके काव्य की उच्च भूमिका है। यहाँ मानव की हिनताओ का दिग्दर्शन नहीं कराया गया है। अब प्रतिपाद्य के दूसरे पक्ष पर आइए । वहाँ कवि कबीर की आलोचनात्मक प्रतिभा का व्यापक प्रदर्शन हुआ है। यहाँ कवि के अतिरिक्त वे आलोचक, सुधारक, पथ-प्रदर्शक और समन्वय-कर्ता के रूप में भी दृष्टिगत हुए हैं। इस पक्ष में विशेष परिगणनीय विषय है चेतावनी, मेष, कुसग, माया, मन, कपट, कनक-कामिनी, आशा, तृष्णा, अह, लोभ परनिन्दा, भेदभाव, जातिवर्णादि। इन प्रसंगो का अध्ययन करते ही आभासित हो जाता है कि मानव कितना हीन प्राणी है। वह काम-क्रोध मद, लोभ, अहंकार से प्रपीड़ित है। आशा एवं तृप्णा जीवन के लिए बड़े अभिशाप है। ये नित्य मानव को दिग्भ्रांत करके किये रहते हैं। कबीर के काव्य का यह पक्ष यह स्थापित करता है कि मानव वड़ा हीन है। सन्तकाव्य में इन्हीं विषयों को लेकर कवियों ने अपने विचारो

का० सा० फा०—३