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ग्रंथावली] [७५३

के लिए शोर करता है,परन्तु उन इशारों को कोई नहीं समझता है। तुम्हारी शव- यात्रा की तयारी हो रही है। पाँच गज कफ़न मंगाया जा चुका है। पिंड-दान के लिए आटा सान लिया गया है। खाली हांडी में अग्नि रख ली गई है और लोग तुझको लाद कर शमशान की ओर चल दिए हैं। बहुत से भाई-बन्धुओ को बुलाकर तेरी अन्त्येष्टि किया सम्बन्धी समस्त कार्य संपन्न कर दिए हैं। कबीरदास कहते हैं कि मेरे इस कथन में कुछ भी झूठ नहीं है। तू विषय-वासना में लिप्त बने रहने की अपनी आदत को छोड़ दे। और निश्चिन्त होकर भगवान राम का भजन कर। कुल की मिथ्या-मान-मर्यादा के हकार में मत फँस।

        आलंकर--(1) रूपक-थूँनी, मंदिर।
               (11) अनुप्रास-करि कुल की कानि।
        विशेष--(1) वैराग्य भावना का प्रतिपादन है।
        (11) शात रस की व्यजना है।
        (111) बिम्ब-विधान द्वारा अंत समय का सजीव चित्रण है।
        (1V) मृत के साथ शमशान तक जाने वाले उपकरणों का वर्णन यह घोषित 

करता है कि कबीर-लोक व्यवहार से पुर्णतः परिचित थे।यह उनके गृहस्थ होने का भी प्रमाण है।

        (v) जिस भांति वल्लभाचार्य ने भक्ति के मार्ग में 'कुलकानि' परित्याग की

बात कही, उसे हम कबीर में भी पते हैं। मीराबाई ने तो सचमुच कुल की कानि छोड़ ही दी थी---

         छाँडि दयो कुल की कानि कहा करिहै कोई।
         सतन ढिंग बैठि-बैठि, लोक-लाज खोई।
      इसी बात को गोस्वामी जी ने थोड़े से फेर के साथ कहा है---
             जो पै रहनि राम सो नाहीं।
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       कीरति, कुल करतूति, मूति भलि सील सरूप अलोने।
       तुलसी प्रभु-अनुराग-रहित जस सालन साग सलोने।
                    (३१५)
       प्राणीं लाल औसर चल्यौ रे बजाई। 
       मुठी एक मठिया मुठी एक कठिया, सग काहू कै जाइ ॥ टेक ॥
       देहली लग तेरी मिहरी सगी रे,फलसा लग सगी माइ।
       मड़हट लूँ सब लोग कुटबी, हस अकेलौ जाइ॥
       कहां वै लोग कहां पुर पटण, बहुरि न मिलबौ आई।
       कहै कबीर जगनाथ भजहु रे, जन्म अकारथ जाई॥
    शब्दार्थ--लाल=सुन्दर।  औसर=दाव।  पहण=बाजार।  वजाड=

खेलकर ।