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ग्रन्थावली

कि यह काम रूपी शबु हम सबको पछाड कर नष्ट कर रहा है । (इसी से बचाने की आवश्यकता है ।) अलंकार---, रूपक-आर्ष वन, ससार सागर, माया वाधिनी । काम रिपु । (गा पांरैकराकुर-गौपाल । (गा छेकानुप्रास-चित्त चचल, ससार सागर, मोहिनी माया, राम राइ । विशेष-यह विनय भक्ति का पद है । ३१० ) भगति बिन भौजलि डूबत है रे । बोहिथ छाडि बैसि करि डूंडे, बहुतक दुख सहै रे 1। टेक ।। बार बार जम पे ढहृकावै, हरि को हूँन रहै रे 1 चौरी के बालक की नाई, कासु बात कहै रे ।। नलिनी के सुवटा की नई, जग सू' राचि रहे रे । बंसा अगनि बंस कुल निकसै, आपहि आप दहै रे ।। खेवट बिनां कवन भी तारे, कैसे पार गहै रे । दास कबीर कहै समझाने, हरि की कथा जीवै रे ।। रांम की नांव अधिक रस मीठौ, बारबार पीवै रे ।। शब्दाथ् "- भौजलि भवजल, -ससार साज्जार । बोहिथ८---बोहित, जहाज । डू३र्ड=टू३ड पर, टू३ठ पर, लकडी के लदृठे पर । डहकावै-र=धोखा खाता है, ठगा जाता है है रति---, आसक्त । वना अगनि=वासौ की रगड़ उत्पन्न होकर वन में लगने वाली अग्नि । संदर्भ-कबीरदास राम की भक्ति का पतिपादन करते हैं 1 भावार्थ--- रे जीव ' तू भगवान की भक्ति के विना इस ससार सागर से द्वव रहा है । तूने भक्ति रूपी जहाज को छोडकर अन्य सावन रूपी काठ के लटूठो पर बैठकर इस भवसागर को पार करने का विफल प्रयत्न किया । इसी कारण तुमको अनेक दु ख सहने पडे हैं । तू वार-वार यमराज के द्वारा ठगा जाता है अर्थात् वार बार जाम-मरण के चक्कर से पडता है, परन्तु भगवान का भक्त होकर नही रहता है 1 दासी पुत्र की भाँति तू किसी को भी अपना पिता नही कह सकता है अर्थात् विभिन्न साधनाओं ने भटकने वाला व्यक्ति किसी एक साधन के प्रति निष्ठावान नही रह पाता है । यदि "बाप" के स्थान पर बात पाठ हो, तो इस पक्ति का अर्थ इस प्रकार होगा । तूने भगवान की भक्ति से जी चुराया है । तेरी हालत उस बालक की भाँति है जो चोरी करता है और लज्जा के कारण किसी के सामने मुँह नही खोल पाता है । हे जीव ४ काठ की नली पर त्रपैडकृ करने वाले तोते की भाँति तू इस माया मय जगत के प्रति आसक्त वना हुआ है । जैसे वडबाग्नि वासी की ही रगड से प्रकट