७२५} {कबीर
(॥) अनुप्रास--गगन की पुनरावूति । विशेष--परम त्तव की अनिवचौनीयता का सुन्दर वणन है। और ठीक
ही है--
जो समझ में आयेगा वह लाइन्तहा कैसे हुआ ? जो जहन में आ गया, वह खुदा कैसे हुआ (२६४)
ह्मारै कौन सहै सिरि भारा,
सिर का सोभा सिरजनहारा ॥टेक । टेढी पाग बड जूरा, जरि भए भ्प्तम कौ कूरा॥ अनहद की गुरी बाजी, तब काल द्रिष्टि भै भागी॥ कहै कबीर रांम राया, हरि कै र्ंगै त्मूंड मुडाया॥ शब्दार्थ्--सिरि भारा==सिर पर वोभा । जुटा==जुडा, केश-विन्यास की
पद्धति विशेष । पुरि=तन्त्री, बाजा । कालद्रिष्टि =मृत्यु । मू ड मुडाया=बलिदान होने की तैय्यारी अथ्वा विरक्त होना ।
स्न्दर्भ-कबीर वाह्याचर का विरोध और भगवत्प्रेम का प्रतिपादन
करते हैं ।
भावार्थ - मै सीर पर पगडी आदि का बोझा क्यो सहुं, जब मेरे सिर की
शोभा वह सृष्टिकर्ता है । भाव यह है कि पगडी इत्यादि धारण करके शिर को सजाना व्यर्थ है ।शिर की शोभा की तो इसी मे है कि वह भगवान के सामने झुकता रहे । सवार कर लगाई गई तिरछी पगडी और सवार कर बनाया हुआ वालो का जुडा, जब जल कर भस्म का हो जाते है। जब अनहद नाद का बाजा बजता है, तभी मृत्यु भय भागता है। कबीर कहते हैं कि मैनें तो भगवान राम के प्रेम मे अनुरक्त होकर सब कुछ त्याग दिया है।
अलकार--(१) गुढोत्कि-- हमारे भारा (११) अनुप्रास-- सिर सोभा सिरजन हारा । विशेष-- (१) लक्षण--सिरि भार, मु ड मुडाया ।
(११) र्निवेद की व्यजना । (१११) अनहद--देखें टिप्पणी पद स्ंख्या १५७ । (११११) वाह्याचार दम्भ के ल्क्ष्ण है । आन्तरिक अनुभूति ही काम्य है ।
(२६५)
कारनि कौंन स्ंवारै देहा,
यहु तनि जरि बरि व्है है षेहा ॥टेक॥
चोचा चंद्न चरचत अंगा, सो तन जरत काठ के स्ंगा ॥ बहुत जतन करि देह मुट्याई, अगिन दहै कै ज्ंवुक खाई ॥ जा सिरि रचि रचि बंघत पागा, त सिरि च्ंच सवारत कागा ॥ कहि कबीर तब झुठा भाई, केवल रांम रह्यो ल्यौ लाई ॥