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७२६ । । कबीर

    (॥) गूडोत्कि अब      हमारे । 
    (॥।) पुनरुक्ति प्रकाश ---लाभ लाभ । 

विशेष ---(।) कबीरदास विषयात व्यक्तियो को सावधान करते है । ((॥)) कबीर की यथार्थवादी दृष्टि दृष्ट्व्य है ।

           (२६२)

परम गुर देखो रिदै बिचारी, कछू करौ सहाइ हमारी ॥ टेक ॥ लावानालि तन्ति एक ससि करि , ज़त्र् बाचावा तैसे बाजा । सति असति कछू नहि जानू , जेसै बचावा तैसे बाजा ॥ चोर तुम्हारा तुम्हरी आग्या , मुसियत नगर तुम्हारा। इन्के गुन्ह ह्म्ह का पकरौ , का अपराध हमारा ॥ सेई तुम्हे सेई हम एकै कहियत , जब आपा पर नही जान। ज्यू जल सै जल पैसि न निकसै , कहै कबीर माना ॥ शब्दार्थ = रिदै=ह्र्द्य । सहाई = सहयता । लवा = लौकी के तूवा । नालि=नली, ड्डा । तत = तौत , अनेक शिराए । एक समि - एकत्र । सत असत = सही गलत । चोर = काम त्रौधादि । मुसियत = लूट्ते है । सेई = वही। सन्दर्भ - कबीरदास परमा को सम्बोधित करके केह्ते है कि " जो कुछ है सब तोर । " भावार्थ - हे परम गुरु परमात्मा , आप अपने ह्र्द्य पर हाथ रख कर विचर करो कि मेरी क्या गलती है । और मेरी कुछ सहायता करो। आपने अनेक अग रूपी तुम्वा , मेरू दण्ड रूपी नालि तथा विभित्र शिराए रूपी तात एकत्र करके यह शरीर रूपी सुन्दर वाजा तयार किया । इस शरीर रूपी वाजे से निकलने वाली ध्वनी भली है अथवा चुरी , यह मै कुछ नही जानता है । आप इसको जिस प्रकार बजाते है , उस प्रकार यह बजता रह्ता है केह्ने का तात्पर्य येह है कि मै प्रत्येक कार्य् आप्कि प्रेरणा से करता रेह्ता हू । औचित्यनौचित्य का विचार मै नही करता हू । इस शरीर मे काम त्रोघादि विकार रूप जो चोर रेह्ते है , वे भी तुमहारी ही प्रेरणा स्वरूप रेह्ते है । वे तुम्हारे ही नगर रूपी इस शरीर को लूट्ते रेह्ते है । इन चोरो के अपराध के लिए आप मुभको क्यो द्ण्डित करना चाह्ते है ? यदि ये चोर आपकि प्रेरणा से इस नगर को नष कर रहे है , तो इस्मे मेर क्य दोष है ? जो आप है , वही मै हू । मै तोह अपने ओर पराए का भेद जानता ही नही हू । कबीर केह्ते है कि जिस प्रकार जल मे प्रवेश करने वाला जल उसी के साथ एकाकार हो जाता है और फिर उससे प्रीथक नही किया जा सकता है,उसी प्रकार मै भी आपके साथ तदाकार हो गया हू ।

           अलन्कार -- (।) साग रुपक---लवानालि  वाजा ।
                     (॥) सभग पद यमक --सत असति ।