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७२४] [कबिर

  अलंकार- (1) रूपक -- करधा रुपी शरीर।
         (11) व्यतिरेक -- करगहि एक वीनानी।
         (111) पदमैत्री -- तणि वुणि, तणिया ताणां वुणिया वाणा।
         (1V) विशोषोक्ति कि व्यजना - जेतु मिलावा।
  विशेष - (१) जुलाहे के व्यापार को लेकर साधना का रूपक बाँधा है।

अपने प्रति प्रेम एक अपने धर्म के प्रति आस्था भगवत्प्राप्ति का मूल मन्त्र। है। कबीर ने जुलाहा का काम करते हुए मोक्ष पद की प्राप्त की। ठीक ही है-

         श्रेयान्स्वधमौ विगुण पारधमत्स्विनुष्ठितात्।
         स्वाधमै निधनं श्रेय परधर्मॊ भेयावह:। 
                              (श्रीमद्भगवद्गीता, ३/३५)
  कागभुसु डि जी ने भी तो यही कहा था--
         यातै यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
         निज प्रभु नैनन दैखेउ, गयेउ सकल स्ंदेह। 
                              (रामचरितमानस)
(11)राछ भरत वधा -- तुलना कीजिए ---
   मोहि मूढ मन बहुत विगोयो।
   याके लिए सुनहु करुनामय, मै जग जनमि जनमि दुंख् रोयो

डासत ही गइ बिति निसा सब, कइहँ न नाथ नोद भरि सोयो।

                             (गोस्वामी तुलसीदस)
              (२६०)

वै क्यू कासी तजै मुरारी,

       तेरी सेवा धेर भये बनवारी ॥टेक॥

जोगी जती तपी सन्यासी, मठ देवल बसि पारसै कासी ॥ तीन बार जे नित प्रति न्हावै, काया भोतरी खबरी न पांवै ॥ देवल देवल फेरी देही नांव निरंजन कबहुँं न लेहीं ॥ चरन बिरद कासी कौन दँहूं, कहै कबीर भल नरकहिं जैहु ॥ शव्द -- देवल = देवालय। अरसं = स्पर्श, उपयोग। विरद = यश । सन्दाम्र- कबीरदास वाह्याचागी दभियो की निंदा करते है। भावाय्र -- हे मुरारी, जिन लोगो ने भगवान की सेवा मे चोरी की है वे काशी को क्यो छोडने लगे? तात्प्यं यह है कि जिन्होने भगवान का नाम नही लिया हे, वे काशीवास द्वारा ही अपने उद्धार की अशा कर सकते है। योगी, यती, तपस्वी, सन्यासी ये सब मठो और देवालयो मे रहते हुए काशी-वास का उपभोग करते हैं। वे नित्य प्रति तीन वार स्नान (गगा स्नान) करते है, परन्तु अन्त:करण मे विराजमान परम तत्व की ओर ध्यान नही देते हैं। वे मदिर-मदिर घूमते फिरते