यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपमा-मीन ज्यू तलपै। [ विशेश-इस पद मे रहस्य भावना ऐवम भक्ति भावना का सुन्दर समन्वय है। इसमे समन्वित प्रेमानुभूति का विप्रलम्भ रूप है। समाभाव के लिए देखिए- मैं हरि बिन क्यो जिऊ री माइ। पिव कारन बौरी भई, ज्यौ घुन काठहि खाइ।

मीराँ के प्रभु लाल गिरधर । मिलि गये सुख दाइ । -मीराबाई

                (२८५)

जातनि बेद न जानैगा जन सोई,

      सारा भरम न जानै रांम कोई ॥टेक॥

चषि बिन दिवस जिसी है सझा,व्यावन पीर न जांनै बझ। । सूझै करक न लागे कारी,बैद बिधाता करि मोहि सारी ॥ कहै कबीर यहु दुख कासनि कहिये,अपने तन की आप ही सहिये॥ शब्दार्थ-करक=पीडा। सन्दर्भ- कबीर की विरहिणी आत्मा भगवत्दशन से लिए व्याकुल है । भावार्थ-जिसके ह्रिदय मे विरह की पीडा है वही भाग्वत्प्रेमि उसको समझ सकता है। शेष समार को भ्रम मात्र है। राम के प्रेम की अनुभुति तो किसी किसी को होती है।नेत्रहीन के लिये जैसा दिन है वैसे ही सन्ध्या है अर्थात् अन्धे के लिये तो दिन -रात समान है।वन्ध्या नारी प्रसव की पीडा नही समझ सकती है। विरहिणी को अपनी पीडा भर दिखाइ देती है और वह उसको बुरी भी नही लगती है। विरहिणि जीवात्मा कहाती है कि हे भगवान रुपी वैद्य,मेरी व्यथा को ठीक कर दो तुम वैद्य बन कर आओ और दर्शन रूपी औषधि द्वारा मुझे स्वस्थ कर दो। कबीर कहते है कि इस प्रेम पीडा को किस्से कहूँ ।अपनी व्यथा स्व्य ही सहनी पडती है।

       अलन्कार-ह्रिष्टान्त -चषि वझा।

विशेष- समभाव देखिए- घायल की गति घायल जानै और न जाने कोय। तथा घायल-सी घूमत फिरूं , दरद ना जाणे कोइ। धान न भावै , नींद न आवै विरह सतावै मोइ। -मीराबाई अपने तन को आपन सहिये। ठिक ही है- रहिमन मन की बिथा मन मे राखौ गोय॥ लोग हँसाइ सब करै बाँट न लेहै कोई।-रहीम

          (२५६)

जन की पीर हो, राजा रांम भल जांनै, कहूँ काहि को मांनै॥टेक॥