७१६ ] [कबीर
शब्दार्थ-निज निरखत=आत्म ज्ञान । गत=समाप्त । मूका=मुट्ठी (मुक्का) । बाभ=बिना सन्दर्भ-कबीरदास ज्ञान-बोध की चर्चा करते हैं । भावार्थ-अब विवेक-विचार आदि की क्या आवश्यकता है ?
आत्म-स्वरुप का साक्षात्कार हो जाने पर सम्पूर्ण सांसारिक व्यवहार (विधि-निषेध) समाप्त हो गए है । इस साधक रूपी पाचक जीव को परमात्मा रूपी एक ऐसा दाता मिल गया है जिसका दिया हुआ ज्ञान-भक्ति रूपी धन भोग करने पर भी समाप्त नही होता है । उस धन को कोई अपनी मुट्ठी मे भी नही भर सकता है अर्थात् उसके ऊपर एकाधिकार भी नही कर सकता है तथा उस धन को प्राप्त करने के पशचात किसी अन्य के पास याचना करने के लिये जाने की आवश्यकता भी नही रह जाती है । अर्थात अन्य साधनाओं को अपनाने की आवश्यक्ता नहीं रह जाती है । उस धन के बिना जीवित नही रहा जाता है । यदि वह धन मिल जाता है तो हमारे सांसारिक अस्तित्व (अहम् भाव) को मार कर समाप्त कर देता है । भक्ति पूर्ण यह जीवन ही अच्छा कहलाता है और बिना मरे इस जीवन की प्राप्ति नही होती है अर्थात् जब तक व्यक्ति का अहभाव (सांसारिकता के प्रति आसक्ति) नही मर जाता है ,तब तक वह भक्ति के आनंद पूर्ण जीवन का अधिकारी नही बन पाता है । जब व्यक्ति भक्ति के चन्दन को घिसकर ज्ञान और वैराग्य की अग्नि प्रकट करता है और उससे विषय विकारों के जंगल को जला डालता है ,तब उसको साधना रूपी नेत्रों के बिना ही सहज भाव से ह्रदय में भगवान का साक्षात्कार हो जाता है । वह भक्त एक उस पुत्र के समान है जो परमात्मञान रूपी पिता को जन्म देता है तथा स्थान के बिना ही नगर बसा देता है अर्थात् सांसारिकता मे लिप्त हुए बिना ही संसार के व्यवहार चलाता रहता है । जो जीवित रहते हुए मरना जानता है अर्थात् शरीर को रखते हुए सांसारिकता (आसक्ति) का परित्याग करके संसार के लिए मृत हो जाता है , वही साधक पाँचो प्राणों द्वारा प्राप्त सामूहिक सुख का वास्तविक आनंद प्राप्त करता है । कबीरदास कहतें है कि भगवान की खोज मे मैंने अपने संसारी रूप को नष्ट करके उस परम तत्व को प्राप्त किया है ।
अलंकार-(I) वत्रोक्ति-अब विचारा । (II) विशेपोक्ति-धन खाया । (III) सम्वन्धातिशयोक्ति-कोइ मूका । (IV) विरोघाभास- तिरुवाभ्क्त खाई, बिन मूवा नाही, घसि वारा , तिहि ' जाया, जीवत ।' 'जान तथा प्रभू भेटत' गवाया । (V) विभावना-बिन ' निहारा, बिन ठाहर''बमाया । विषेश-(I) यह पद उलटवासी का है ।