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ग्रन्थावली ] [७१५

                      (५) अनुप्रास--भरम,भोयन भीनौं ।
                      (६) श्लेष पुष्ट रूपक--मसि ।
                      (७) विरोधाभास--अचल है याके ।
         विशेष-- (१) ज्ञान दशा का मार्मिक वर्णन है ।
         (२) ताथै     भरिया-समभाव देखै--
                अध जल गगरी छलकत जाए ।
         (३) मन का मर्दल न बजाना ताल न देना विविध जागतिक कार्यों के
 लिए उसका सहयोग न देना है । चित्त के घट का भरना सतोष से पूरित होना है ।
 मन के मर्दल के भीगने का तात्पर्य उसका शिथिल होना है । सग के लोग विषय
 विकार हैं अथवा ससार के सम्बन्धी भी हो सकते हैं ।
         (४) ज्ञान और भक्ति का समन्वय ही जीवन की सार्थकता है । यही कबीर
 का दर्शन है । कबीर जीवन के सामान्य किया व लापो के प्रति नवीन ट्टष्टि उत्पन्न
 करना ही ज्ञान-प्राप्ति का लक्षण मानते हैं ।
         (५) तुलना कीजिए---
                  अबलौं नासानी, अब न नसैहौं ।
              राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे पुनि न डसैहौम ।
              पायो नाम चारु चिंतामनि, उर करते न खसैहौं ।
              स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं ।
              परबस जानि हँस्यौ इन इन्द्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौम ।
              मन मधुकर पन कै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं ।
                                                (गोस्वामी तुलसीदास)
 तथा---       अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल ।
              काम-क्रोध को पहिरि चोलना, कण्ठ विषय की माल ।
              *                  *                   * 
              सूरदास की सबै अविध्या, दूर करौ नन्दलाल ।
                            ( २५२ )
          अब क्या कीजै ग्यांन बिचारा,
                 निज निरखत गत ब्यौहारा ॥टेक॥
          जाचिग दाता इक पाया, धन दिया जाइ न खाया ।
          कोई ले भरि सकै न मूका, औरनि पै जानां चूका ॥
          तिस बाझ न जीव्या जाई, वो मिलै त घालै खाई ।
          वो जीवन भला कहाई, बिन मू वां जीवन नांहीं ।
          घसि प्वदन बनखडि बारा, बिन नैननि रूप निहारा ।
          तिहि पूत बाप इक जाया, बिन ठाहर नगर बसाया ॥
          कहै कबीर सो पाया, प्रभु भटेत आप गंवाया ॥