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कैसे तु हरि कौ दास कहायौ,
करि बहु भेषर जनम गंवायौ॥ टेक॥ सुध बुध होइ भज्यौ नहि सांई, काछचौ डच'भ उदर कै तांई॥ हि्रवै कवट सू नही साचौ, कहा भयौ जे अनहद नाच्यौ॥ भ्कूठे फोकट कलू मंझारा, इहि बिधि भब तिरि कहै कबीरा॥ शब्दाथॅ- काछ्यौ =वेष घारण किया। डयभ = दंभ, पाखण्ड। उदर के ताई = उदरपूति के लिए । अनहद=अनाहत नाद के नाम पर अथवा वेहद। कलू=
क्लियुग। नियारा=न्यारे,अनोखे।
सदर्भ - कबीरदास नारद द्वार प्रातिपादित प्रेम भक्ति का प्रतिपादन करते हैं।
भावार्थ--रे साधु का वेष धारण करके अपने आपको भक्त कहने वाले प्राणी। तुम अपने आपको भगवान का भक्त क्योकर कहलाते हो? तुमने तो तरह-तरह के अनेक वेष धारण करके अपना सम्पर्ण जीवन नष्ट किया है। तुमने कभी भी शुध्द बुध्दि व्दारा भगवान का भजन नही किया है। यदि तु केवल दिखाने के लिए हृदय मे उठने वाले संगीत का नाम लेकर तरह तरह से नाचता रहा है, तो इससे क्या लाभ है? इस भ्कूठै एक निस्मार कलियुग मे राम का नाम लेने वाले सच्चे भक्त और ही होते है अर्थात् सच्चे भक्तो के लक्षण न्यारे ही होते हैं। कबीर कहते है कि अपने शरीर को नारद व्दारा कथित प्रेमा भक्ति मे तन्मय करो और इस प्रकार इस संसार-सागर के पार हो जओ। अलंकार--(१)गूढोकति - कैसे' ' कहायो। (२)पदमैतरी- सुध बुध। (३)वऱोक्ति -कहा भयो नाच्यौ। (४)भेदकातिशयोक्ति - दास नियारा। (५)रूपक-भव। विशोष-(१)अनहद- देखे टिप्पणी पद स° १५७। (११)वाह्चाचार का स्पष्ट विरोध है। (१११)इस पद मे कबीर "नारद भक्ति" की चर्चा करते हुए वैष्णव भक्तो के एक दम निकट आ जाते है। कनिपय आलोचको के मतानुमार 'भगति नारदी' मे कबीर का तात्पर्य 'नारद भक्ति सूत्र' मे वर्णित भक्ति के प्रकार से नही है । परन्तु हमारे मनानुमार कबीर काम तात्पर्य 'नारद भक्ति सुत्र' मे भक्ति-पध्दति से ही