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काया मंजसी कौन गुनो,

             घट भीतरि है मलनो||टेक||
      जो तू हिरदै सुध मन ग्यांनीं, तौ कहा बिरोलै पानी|
      तू बी अठसठि तीरथ न्हाई, कडवापन तऊ न जाई||
      कहै कबीर बिचारी ,भवसागर तारि मुरारी||
   
   शब्दार्थ--मजसि=मज्ज्सि, घोता है| कौन गुना=किस उपयोग के लिए, बिलोलै=बिलोडित करता है, मथना अर्थात् पानी मे से किसी वस्तु को प्राप्त करने काम प्रयत्न करना|तूबी=तु बी,कडवी लोकी|
    
   संदर्भ--कबीर वाह्चाचार की निरर्यकता का प्रतिपादन करते हैं।
   भावार्थ--पूजा-पाठ आदी वाह्माचारो मे लिप्त व्यक्तियो को समबोधित करते हुए कबीरदास कहते है की "तुम्हारे शरीर के  भीतर तो मैला भरा हुआ है| तब  फिर तुम शरीर को बाहर से क्यो धोते हो ? अभिप्राय यह है कि जब ह्रुदय के भीतर विषय -वासना रूपी मैल भरा हुआ है, तब तीर्थों मे मल मल कर स्नान करने से कोई लाभ नही है| यदी तुम ह्रुदय से शुध्द और विवेक पूर्ण मन वाले हो, तब फिर तुम इन तीर्थों के जल को मथ कर क्या करना चाहते हो? अभिप्रय यह है कि जल को मथने पर कुछ भी हाथ नही लगता है| जल-मथन तो वही करता है जो एक दम मूर्ख होता है| अत जो तीर्थों मे स्नान करके मोक्ष की आशा करते है, वे निर आज्ञानी हैं | विवेकी ऐसा मूर्खतापूर्ण व्यवहार कदापि नही करेगा|
                जल मे स्नान करके मोकी्ष क आशा करने वालो को लोक-व्यवहार का हष्टात देकर कवी समभक्ता है कि कडुवी लौकी जल मे तरती हुई इधर-उधर अनेक तीर्थों मे भले ही स्नान करले ,परन्तु उसका कडुवापन नही जा पाता है| इसी प्रकार तीर्थ-स्नान से मानव मन की वासनाओ का मैल समाप्त नही हो पाता है| कबीर कहते है की इन्ही सब बातो का विचार करके मै भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि हे मुरारि ,तुम मुभक्तो इस स्ंसार रूपी सागर से पार उतार दो अर्थात् आवगामन के चक्र से मेरा उद्धार कर दो|

       अलंकार--  i)गूढोक्ति - काया गुना, जोत पानी |
                ii)हष्टात-तूबी जाई|
               iii)विशेषोक्ति - तऊ न जाई|
                iv)रूपक - भवसागर|
                v)परिकराकुर - मुरारी|
        विशेष--  i)लक्षण -विरोलै पानी ।‌
               ii)चाह्माचार का विरोध है|
              iii)पाठान्तर -हिरदै कपट मुख ग्यानी|भूक्ठै कहा बिलोवसी पानी|