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iii)सच्ची भक्ति-भावना का प्रतिपादन है|
iv)सच्चा ईश्वर प्रेम ही जीवन का चरम फल है|यह मीधी-सी बात लोगो की समभक्त मे नही आती है|इसी बात को देखकर कबीर हैरान है| रांम राई भई बिगूचनि भारी, भले इन ग्यांनियन थे संसारी||टेक|| इक तप तोरथ औगांहै, इक मांनि महातमा चांहै|| इक मै मेरी मै बीभ्क्ते, इक अहंमेव मे रीभ्क्ते| इक कथि कथि भरम लगांवै, संमिता सी बस्त न पावै|| कहै कबीर का कोजै, हरि सूभ्क्ते सो अंजन दीजे|| शब्दार्थ--बिगूचनि=उलभक्तन, कठिनाई, असमंजस, औगाहैं=अवगाहन(स्नान)करते है| मानि=मान, सम्मान | बीक्ते=बीधे, बधते है| अहमेव="मै ही हू"- मिथ्याभिमान |कथि कथि=विभिन्न सिद्धान्तो का प्रतेपादन करना | समिता=समाप्त अथवा सबितु आत्मबोध | वस्त=वस्तु| अजन=काजल, लक्षण से ज्ञान ,आँखो की दुश्टि को शुद्ध करे| संदर्भ--कबीर के विचार से 'विवेक'ही भग्वद् प्राप्ति का उचित सोपान है|
भावर्थ--हे भगवान, मेरे सामने तो बडी भारी कठिनाई उपसथित हो गई है| इन तथाकथित ज्ञानियो (दोगी एव पाखणडी लोगो) की उपेक्षा तो थे ससारी लोग(ग्रुहस्थ लोग) ही अच्छे हैं|
इन ज्ञानियो मे कोई तो तप करते हैं, कोयी तीर्थों मे स्नान करते है, कोई मान चाहते हैं और कोई अपने आपको (भगत जी आदी ) बडा दिखाना चाहते हैं| इनमे बहुत से मैं मेरा' के मोह-बन्धन मे फैसे हुए हैं और किन्ही को अपनी शेखी वघारने की लत पड गई है| इनमे कुछ लोग विभिन्न धार्मिक सिद्धान्तो का वणंन करते हुए अपने आपको भ्रम मे फँसाए हुए है| परन्तु इन मै कोइ भी ऐसा नही है जिसको आत्म-बोध अथवा समभाव जैसी वस्तु को प्राप्ति हो गई है|कबीरदास कहते है कि तथाकथित ज्ञान और ज्ञानियो से छुटकारा कैसे हो? यथांथ बात तो यह है की उस ज्ञान की प्राप्ति की जनी चहिए जिसमे भगवान का दर्शन प्राप्त हो सके|
अलंकार--i)पुनरुक्ति प्र्काश-कथि कथि| विशेष--i)'अजन' ज्ञान का प्रतीक है| ii)अहंकारि एवं दोगी ज्ञान की अपेक्शा वह ग्रुहस्थ कही अधिक अच्छा है जो निष्ठा पूर्वक अपने उत्तरदायित्यव का निर्वाह करता है|सच्चे ग्रुसस्थ की प्रशसा एवं दोगी जानी की भत्सेना है| iii)इसमे तत्कालीन सामाजिक जीवन की भी
एक भलक प्राप्त हो जाती है|