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ग्रन्थावली ]

    (४)छेकानुप्रास-राम रमत|

विशेष -निर्वेद एव वॅराग्य की व्यजना है|

 इब न रह माटी के घर मै,
            इब मै जाइ रहू मिलि हरि मै||टेक||
 छिनहर घर अरु झिरहर टाटी,धन गरजत कंपे मेरी छाती ||
 दसवै दारि लागि गई तारी,दूरि गवन आवन भयौ भारी ||
 चहूं दिसि बैठे चारि पहरिया,जागत मुसि गये मोर नगरिया||
कहै कबीर सुनहु रे लोई,भांनड घडण सचारण सोई||

शब्दार्थ् पाटी का घर =पचभोतिक जगत|छिनहर=जीणं=टुटा फुटा| भ्रिरहर - भ्रिरीवाला,सूरखो वाला| दसवॉ द्वार - व्रह्मारन्ध्र|धन - बादल,काल| तारी-त्राटिका|गवन-अवन-जीवन-मरण|चारी-अहॅकार चतुष्टय, मन,चित्त बुद्धि अहकार|मुसि गये-न्ष्ट-भ्र्ष्ट कर गये|भानण-भजन करने वाला|घडण-गढने वाला,बनाने वाला|सवारण-सवारने वाला अर्थात् पालन(रक्षा)करने वाला|

        संर्दभ-कवीरदास सासारिकता की निस्सारता का प्रतिपादन करते हुए प्रभु भक्ति का सकल्प करते है|
     भावार्थ-अब मै इस मिट्टि के घर अर्थात् मृण्मय शरीर के प्रति 

आसक्त नही रहूँगा|अब मै भगवान मे तदाकार हो जाऊँगा| वासनाओ का भडार यह शरीर रूपी घर अत्यन्त जीर्ण है और इसके ऊपर जो वासनाओ का आवरण है,वह भी छेदो वाला है अर्थात् वासनाएँ भी मेरी रक्षा नही कर सकती है |काल रूपी बादल जब गरजते है अर्थात् जब मुझे मृत्यु का स्मरण आ जाता है,तब मेरा हृदय् कॉपने लगता है|गुरु की कृपा से माटिका लग गइ है|इस्से व्रह्मारन्ध्र के दारा अब प्राण बाहर नही जा सकेंगे|इस कारण आवागमन का चत्र समाप्त हो गया है|इस ससार की स्थिति तो यह है कि मन,चित,वुद्धि एव अहकार रूपी चार पहरेदार चारो ओर से इस शरीर की रक्षा करते रहते है अर्थात् अन्त करण चतुष्ट्य के वशीभूत मनुष्य किसी प्रकार मरना नही चाहता है,परन्तु इन पहरेदारो के सजग रहते हुए भी काल रूपी चोर इस शरीर रूपी नगर को लूट ले जाता है|कवीरदास कहते है कि हे लोई!सुनो मनुष्य सवंथा विवश है|सबका नाश,सुजन एवं पालन करने वाला केवल वही एक ईश्वर ही है|

   अलंकार -(१) रूपकातिश्योत्कि-माटी का घर,
           (२) घन चारि पहरिया,नगरिया|
           (३)विरोधाभास-यहु दिसि----नगरिया।

विशेष -(१) निर्वेद संचारी भाव की व्यजना है।