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और व्यर्थ ही सतर्स गये रत कठोर हृदय वाले व्यक्तियो को सम्बोश्रिनत करते हुये कबीर ने 'संगति भई तो क्या भया, हिरदा भया कठोर । नौ नेजा पानो चढौ तऊ न भीजौ कोर ।' भेष वाह्राडम्बर, दुविधा, असत्य, अन्तोष जैसे 'दुर्गणो' जो सामाजिकता के लिए अभिशाप है, की कबीर ने कटु निन्दा की । कबीर "जस की तस धरि दीनी चदरिया' मे विश्वास करते थे । यह मानव शरीर रुपी चदरिय का उपयोग यत्न पूर्वक ही करना चाहिए और इस चदरिया का यत्न पूर्वक प्रयोग करना ही सबसे बड़ा सामाजिक गुण है । कबीर का काव्य मानव जीवन , मानव समाज और व्यक्तकी प्रत्येक दिशा का स्पर्श करता है । तभी तो आलोचको ने कहा कि कबीर मानव जीवन के सुक्ष पर्यावलोचक थे । वास्तनव मे कबीर की कविता मे मानव जीवन के विविध पक्ष, प्रवुन्तियो, भावनाये व्यक्त हुई है । मनुष्य कैसा है और उसे कैसा होना चाहिये यह कबिर की कवीता मे बहुत ही स्पष्ट रुप से , बहुत हि सुक्ष्म रुप से चित्रित हुआ है । कबीर मानव के बड़े हिमायती और सवेदनशील थे । उनकी कविता मे समाज की असंगतियो मानव जीवन को कुरूपताओं, धर्मगत विषमताओ और चतुर्दिक व्याप्त विडम्बनाओ का व्यापक चित्रण हुआ है । कबीर ने अपने काव्य का विषय इन्ही के आधार पर चित्रित किया है और इसीलिए मानव जीवन और परिस्थितियो के चितेरे कबीर का चित्रिपट बहुत व्यापक है । इन समस्त असंगतीयो के मध्य मे कबिर ने समन्वय संस्थापित करने की चेष्टा की । कबीर का समन्वय अदभुत, अनोखा और अद्वितीय है । यह समन्वय न तो विभिन्न वादो मतमतान्तरो और दर्शनो से सग्रहित विचार घारा के सुन्दर सुमनो का समुच्चय है न वह किसी प्रकार का समभौता है और न किसी यथार्थ से पलायन है । यह समन्वय तत्कालीन प्रिस्थ्ततियो और विषमताओ से अनुप्रागित होकर सस्थापित किया गया है । युगों से कुलीन और अन्त्यज, हिन्दू और मुसलमान वर्णें और वर्गों के मध्य मे विषमतायें चली आ रही थी । कबीर ने इनके मव्थ से समन्वय सस्थापित करने की चेष्टा की । कबीर के समन्यत्राद का मुलाधार परम तत्त्र है । यही परमतत्व समस्त मानव समाज का कर्त्ता है । मनुष्य दर्शनो और वर्णो के भ्रमों मे भटकता फिरता है । परन्तु वास्तविकता कुछ दुसरी है ।

जोगी गोरख गोरख करे;
हिन्दू राम नाम उच्चारि ।
मुसलमान कहे एक खुदाई,
अलह राम सति सोई ।