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स्ंदर्भ--कबीरदस मत -पथों की व्यथंता की ओर संकेत करके राम भक्ति का प्रतिपादन करते है|

 भावार्थ--रे मेरे स्वामी राम ,आप एसे साक्षात् अनुभुतिस्वरूप एव्ं अनुपम हो कि तेरी अनुभूति मात्र से भवसागर पार किया जाता है|हे जगत् के प्राण ,यदी तुम क्रुपा करते रहो तो कही भी भूलकर भी जीव माया के बन्धन मे नही पडता है|भगवान का स्वरूप अत्यन्त दुर्लभ दुष्प्राप्य एवं इन्द्रियातीत है|गुरु ने अपनी अनुभूति से प्राप्त ज्ञान के आधार पर यह विचार प्रकट किया है|जिस परम तत्व को हम ढूंढते फिरते है,वह सम्पूर्ण स्ंसार मे व्याप्त है|गुरु के उपदेश द्वरा मेरे ह्रुदय मे जो ज्ञान ज्योति प्रकट हुई है,उसके द्वारा मेरे अन्त करण के किवाड खुल गये है आन्तरिक चक्षु खुल गये है और उसके द्वरा यम के किवाड खुल गया है आन्तिरिक चक्शु खुल गया है और उस्के द्वारा यम के कष्ट-कर्मफल के बंधन समाप्त हो गए है|अब जगत के प्राण विशवनाथ प्रकट हो गया है|मैंने विवेक पूर्वक चिन्तन करते हुए उनको प्राप्त किया है|वही एक परम तत्व अनेक भावों(रूपों)मे देखा जाता है|वह अजन्मा भी जन्मा हुआ सा वर्णित है |उसी देवता को हम पहले मंडप मे फूल पत्ती की पूजा के द्वारा प्राप्त करना चाहते थे|कबीर कहते है कि हे करुणामय! तेरे नाम पर जो अनेक मत-पथ प्रचलित है ,मैं उनमे भटकता रहा और इसी कारण तेरे समाक्षात्कार मे मुभको इत्नी देर हो गई |राम के नाम के द्वारा मैने परम पद की प्राप्ती कर ली है और मेरे समस्य बिघ्न्(कचन कामिनी आदी)एवं विकर (काम ,क्रोध,लोभ,मद,मत्सर,व्यादि)दू हो गए हैं|
         
  अम्ंकार--१)अनुप्रास-अनुभूत अनुपम अनभ,अगम अगोचर |दगधे दुख द्वारा |परम पद पाया|
         २)रूपकातिश्योक्ति -कापट|
          ३)विरोधाभास-जात्य अजाती|
   विशेष--१)वाह्माचार की निरथंकता की ओर सकेत है|तुलना करें -तुलसीदास ब्रत दान ग्यान तप,सुद्धिहेतु स्त्र तिगांव |राम-चरन अनुराग-नीर-बिनु मल अति नास न पावं |

एव---नाहिंन आवत आन भरोसो| X X X

बहुमत सुनि बहु पथ पुराननि जहाँ तहॉ फगरो सो|
गुरु कह्मो राम -भजन नीको मोहिं लागत राजडगरो सो|

X X X

 राम नाम बोहित भव-सागर चहै तरन तरोसो। 
                                      -- गोस्वामी तुलसिदास 
                (२६५)

राम राइ को एसा बैरागी,

        हरि भजि मगन रहै विष त्यागि ॥ टेक॥