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(१११) मन चित बुद्धि एव अहंकार के समुच्चय का नाम अन्त करण है| (1v) ज्ञान-दीपक……अह ब्रह्मास्मि की वृत्ति । तुलना कीजिए- एहि विधि लेसै दीप सेज रासि बिग्यन मय | जातहिं जातु समीप जरहिं मदादिक सलभ सव | सोहसिन इति वृत्ति अखंडा । दीप सिखा सोइ परम प्रचडा | आतम अनुभव सुख सु प्रकासा । तव भवभूत भेद भ्रम नासा| प्रबल अविद्या कर परिवारा । मोह आदि तम मिटइ अवारा | तब सोइ बुद्धि पाइ उँगियारा उर ग्रुँह बैठि ग्रंथि विरुआरा |

                                       (गोस्वामी तुलसीदास)
                     (२६३)

अबे हरि बिन को तेरा,

            कवन सू' कहत मेरी मेरा || टेक ||

तजि कुलाक्रम अभिमांमां, झूठे भरमि कहा भुलांनां || झूठे तन की कहा बडाई, जे निमष मांहि जरि जाई || जब लग मनहिं बिकास, तब लगि नही छूटे ससारा || जब मन निरमल करि जांनां, तब निरमल माहि समानां || ब्रहा अगनि ब्रहा सोई, अब हरि बिन और न कोई || जब पाप पु नि भ्रम जारी, तब भयौ प्रकास मुरारी || कहै कबीर हरि ऐसा, जहाँ जैसा तहाँ तैसा || भूलै भरमि परै जिनि कोई, राजा रांम करै सौ होई || शब्दार्थ-निमष= निमिष, पल | सन्दर्भ-कबिरदास ज्ञानी भक्त की भाँति भगवान के प्रति अनन्यता का प्रतिपादन करते हैं | भावार्थ-हें मूर्ख | भगवान को छोड कर तेरा कौन है ? इस ससार मे तुम किसको अपना कह रहे हो ? उच्च कूल मे उल्पन्न होने का अभिमान छोड दो। इस कुलीनता के झूठे भ्रम मे व्यर्थ ही भूल रहे हो । उस नाशवान शरीर के प्रति आसक्ति क्या करना (यह आसक्ति व्यर्थ है) । जो एक क्षणभर मे जल कर नष्ट हो जाता है | जब तक मानव के मन में विकार (काम, क्रोध, लोभ आदि) हैं, तब तक इस संसार(आवागमन एव उससे उत्पन्न कष्ट) से छुटकारा नहीं है | जब व्यक्ति विषय-वासनाओं एव विकारो को त्याग कर अपने मन को निर्मल कर लेखा है, तब वह शुध्द मन शुद्ध तत्व मे समा जाता है । जो ब्रम्हा का ज्ञान कराने वाली ज्ञानाग्नि है वहीं वस्तुत ब्रम्हा है । ज्ञान उत्पन्न होने पर ब्रम्हा के अतिरिक्त अन्य कुछ रह ही नहीं जाता है । जब पाप-पुष्य (कर्म) का भ्रम नष्ट हो जाता है- अथवा जब व्यक्ति निष्प्रूह होकर कर्म करने लगता हैं, तब मात्र भगवान का साक्षात्कार कराने वाली ज्योति रह जाती है । कबीर कहते है की भगवान का