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कहें कबीर मै जांनां, मै जांनां मन पतियाना || पतियानां जो न पतीजै, तौ कू का कीजै || शब्दार्थ्-र्गवारा=अज्ञानी, मूर्ख । पच चोर=पाँच विकार (काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर्)। गढ=शरीर रुपी दुर्ग । मुहिकम=दृढ, वस्तु । मति=बुद्धि I संदर्भ-क्रवीरदाम कहते है कि ज्ञान प्राप्ति के लिए मन की शुद्धि परम आवश्यक है| भावार्थ-हे मूर्ख जीव। 'भगवान का नाम वयो नही लैता हैं ? तू इस बारे मे बार-बार क्यो सोचता है ? अथवा तू यह क्यो बार्-बार सोचता है कि सांसारिक चिताओं से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए । इस शरीर-रूपी दुर्ग मे काम, क्रोध, लोभ, मद एव मत्मर रुपी पाँच चोर हैं । ये इसको दिन-रात लूट रहे है | अगर दुर्ग का स्वामी मज़बूत हो, तो दुर्ग को कोई नही लूट सकता है । अभिप्राय यह है कि ये पच विकार जीव की चेतना एव रुव-स्वरूप-स्थिति की क्षमता को नष्ट कर रहे हैं। यदि जीव-चैतन्य अपने स्वरूप पे दृढता पूर्वक रिथत रहे, तो इसकी क्षमता को कौन नष्ट कर सक्ता है ? अविद्या रूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिये ज्ञान रूपि दीपक् चाहिए | उसी के द्वारा अगोचर परम तत्व की प्राप्ति होती है| टम परम तत्त्व के साक्षात्कार मे यह ज्ञान रुपी दीपक भी इसी परम तत्त्व मे समाहिन हो जाता है ।अगर कोई उस परम तत्व का साक्षात्कार करना चाहता है तो उसे अपने अंत कदृण रुपी दर्पण को रवच्छ बनाए रखना चाहिए १ जव दर्पण वे: ऊपर मैल जम जाना डे-ज़त्र अंत करण मलिन हो जाता है, तब उस परम तत्व का नावात्कार नहीं होता है । पढने और मनन (स्वाध्याय) करने से क्या होता हैं ? वेद-पुराण सुनने से क्या होता है ? पढने एवं मनन करने मे मतवाद रूपी अहन्कार उत्पन्न हो जात है और तब परम तत्व का 1 उनको मुनरो तो मद्रदृव्र भाव ने हो गया हैं । अथवा यह कहिए कि