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ग्रन्थावली | [ ६९१ निसर=निस्सृत होता है, बरसता पाइक = पावक । बाव=वायु । बरन== वरुण । पाइक= पाँच । प्रहमि== पृथ्वी। हुरमति= हुरमत, असमत, इज्जत ।। भावार्थ- कबीर माया-मोह को सम्बोधित करते हुए कहते है कि मेरे साथी, तुम मुझे क्यो सताते हो ? मैं तो भगवान का साथी हैं। जिसके भीतर चौरासी लाख योनियां समाई हुई हैं । अर्थात् उन्म-मरण का सम्पूर्ण नरक जिसके सहारे चल रहा है, वही भगवान मेरी चिंता करेगा । कहो, समुद्र मे जल कौन भरता है ? बादलों के रूप में गर्जना कौन करता है ? तथा यह वर्षा का जल कहाँ से वरसता है। अर्थात् वही सब कुछ करता है । जिस भगवान की ऐसी विशाल शक्ति है, वह हमको कैसे भूल जाएगा ? जिसने इस ब्रह्मांड में अनेक रचनाएँ की हैं, जिसने वायु, वरुण, चन्द्र और सूर्य को बनाया है, जिससे पाँचो अग्नियाँ और यह पथ्वी प्रकट हुई हैं, उस भगवान को दूर कैसे कहा जा सकता है ? (क्योकि वह तो सर्वव्यापी एव सर्व नियता है ।) जिस भगवान ने आँख, नाक, दाँत आदि अग, वस्त्र एव शरीर आदि बनाए हैं, वह भगवान साधु भक्तो को भला कैसे भुला सकता है ? भगवान राजाराम तो वडे ही उदार हैं। कोई किसी का रहस्य नही जानता है । मैं तो भगवान की शरण में हैं। कबीर कहते है कि हे पिता । राजा राम, माया के इन चक्करो से मेरी इज्जत की रक्षा करो ।। (1) पदमैत्री-साथी, हाथी । दसन बसन । (ii) गूढोत्तर--कहौ कौन कहिए दूरा ।। (iii) वक्रोक्ति–साधूजन बिसरे । विशेष- (1) हाथी हरि केरा= मैं उनकी सवारी हैं तथा उनकी प्रेरणा पर चलना हू । सत्य ही है । यह स्थूल शरीर ‘आत्म तत्व' का वाहन है । (ii) पच अग्नि–प्रकाश, उष्णता गरमी, पित्त एव जठराग्नि ।। (iii) भगवान की शरणागति एव उनके प्रति पूर्ण समर्पण भाव का चित्रण है। ( २६२ ) राग सोरठि हरि कौ नाँव न लेह नँवारा, | क्या सोचे बारंबारा ।। टेक ॥ पंच चोर गढ मंझा, गढ लूटे दिवस र सझा ॥ जौ गढपति मुहकम होई, तौ लुटि न सक्ने कोई ।। अँधियारै दीपक चहिये, तब बस्त अगोचर लहिये ।। जब बस्त अगोचर पाई, तब दीपक रह्या समाई ।। जौ दरसन देख्या चहिये, तौ दरपन मजत रहिये । जब दरपन लागै काई, तब दरसन किया न जाई ।। का पढिये का गुनिये, का बेद पुराना सुनिये ।। पढ़े गुर्ने मति होई, मै सहज पाया सोई ।।