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१० ] | कबीर | ( २६० ) में वेड मैं वड़ मैं बड़ मांटी, मण दसना जट का दस गांठी ।। टेक ॥ में वीवा का जोध ३ हाऊ, अपणी मारी गोद चलाऊ । इनि अहकार घरों घर धाले, नाचत कूदत जमपुरि चाले । कहै कबीर करता की नाजी, एक पलक मै राज बिराजी । शब्द६- नाटका=नाज - टका । टका= रुपया (बगला प्रयोग) । जोध=== योद्धा । गीद--गेद । घणे-बहुत से । घाले-- नष्ट किए। वाजी-खेल, लीला । जि -राज्य रहित ।। सदर्भ--- वीर ससार की असारता का वर्णन करते है । | भावार्थ- अहंकारवश व्यक्ति कहने लगता है कि "मैं बड़ा हूँ, मैं वहा हूँ ।” परन्तु यह वडप्पन मिट्टी (व्यर्थ, अत्यन्त अल्प मूल्य) है । दस मन अनाज एव गाठ में दस रुपए होने के कारण होने वाले वडप्पन का आधार सर्वथा तुच्छ है । मैं चावर का योद्धा हैं अर्थात् गांव के मुखिया का कृपापात्र हैं और जो अपनी मनमानी करता है । इस प्रकार के अहकार के फलरवरूप अनेक घर (परिवार) नष्ट हो गये। ये अकारो नाचते कूदते मर गए । कबीरदास कहते हैं कि यह सब उस सृष्टिकर्ता की लीला है । एक पल के भीतर वह राजा को विना राज का कर देता है । इस पंक्ति में अर्थ :ग प्रकार भी किया जा सकता हैं- जब भगवान की बाजी पडती है, तब वह एक क्षण में ही सब कुछ उलट-पुलट कर देता है ।। अलकार--(1) अनुप्रार- प्रथः पक्ति । घणे घर घाले । दिप---- (!) 'निवेद नचारी' भाव की व्यजना ।। (13) Pाच का प्रयोग- (1) वट माटी (11) बाबा का जो । (iii) अपनी भार) गेंद बनाना । (iv) घर छालना ।। | ( २६१ )। फाहे वोहो नेरे सायी, है हाथो हरि फेरा ।। चौरासी व जा मुरा है, सो च्यंत फरेगा मेरा ।। टेक ।। ही फोन विर्य ही कौन गाज, कहाँ ये पाणी निसरै । हो । अनत हैं जाऊँ, सो हंम को क्यू विसरै ।। निनि न: या घरचना, ३६ वरन ग्रसि सूरा । पर पंच पृमि नाय प्र.2, मी पर कहिये दूर ।। नै न f:नि इरि गिन् दमन वमन विधि फाया । FT : ६ । ' शि , । राम राया ।। । । । । । ननि, ६ गरनांगति तेरी ।। । ११ मि दा, मति ग्रह पर ।।। १- २" -- . ई-*-* -३ । ६१ == *";} }