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६८० ] [ कबीर

हो जाएे (अथवा राम भक्ति के बिना समस्त साधनाएे व्यर्थ है।) मूर्ख लोग चाहे जितना उनका पालन करे। सारा जप-तप झूठा है, सम्पूणॆ शास्त्र ग्यान व्यर्थ है। राम की भक्ति के बिना समस्त ध्यान एव साधना झूठी है। शास्त्रो के द्वारा निर्धारित विधि-निशेध,पूजा-आचार का कोई अन्त नही है। ये सब नदी मे डूबा देने योग्य है। स्वार्थी व्यक्तियो ने इन्द्रियो के भोग एव्ं मन को प्रसन्न करने के लिये अनेक 'वादो' और पूजा पद्य्तियो का विकाम कर रखा है। कबीरदास कह्ते है कि इसी मे मैने समस्त भ्रमो को नष्ट करके और अन्य प्रकार की साधनाओ से मुह्ँ मोड कर भगवान मे अपना मन लगा दिया है

          अलन्कार- गूढोक्ति एव विशेषोक्ति की व्य्जना
          विशेष- प्रथम चरण ।
          बाह्वाचार का विरोध है। सच्ची भक्ति का प्रतिपादन है।
                           (२५३)

चेतनि दैखै रे जग घ्ंघा । राम नाम का मरम न जाने, माया के रसि अ घा॥ टेेक॥ जनमत हीरू कहा ले आयो, मरत कहा ले जासी। जैसे तरवर वसत पखेरू, दिवस चारि के वासि॥ आपा थापि अवर की निदे, जन्मत ही जड फाटी। हरि की भगति बिना यहु देहि धव लोटे ही फाटी। काम क्रोध मोह मद मछर,पर अपवाद न सुणिये। कहे कबीर साध की स्ंगति,राम नाम गुण भणिये॥

    शब्दार्थ-- बरात=बनते है।। परोर=पक्शि। थापि=स्थापना करना। धव लोरे= देह धोलोरे=दौड धूप| फाटी= विदीर्ण हो गयी, नष्ट हो गयी| भणिये= कहिये|
    सन्दर्भ--कबीर का केह्ना है कि जीव को सागर के प्रपच त्याग कर राम की भक्ति करनी चाहिये|
    भावार्थ-- हे राम| तू केवल सन्सार के घंघो के प्रति आत्मक्त है| अथ्वा रे जीव तु जागकर क्यो नही देखता है कि येह सब जाल है| तू राम के नाम के वास्तविक मूल्य को नहि जानता और मायाजन्य सुखि से लिप्त होकर वाग्निया स्थिति को न देख्नने के कारन आपा खो रहा है| जन्म के साथ तू अपने साथ कौन सा धन-वैभव लाया था और मरने पर अपने साथ क्या ले जाएगा? जिस प्रकार पक्शि चार दिन के मेह्मान की तरह वृक्श पर चार दिन तक रहती है|