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६७४ ] [ कबीर

सन्दच्ची- वदृवीर रब्बवकं। मूठा कहकर भगवान के प्रति अनुरक्त होने को कहने । भावार्थ- हैं मनुष्य तेरा ऐसा स्वभाव वन गया है कि तुझे झुठ ही मधुर लगता है अथवा हे मनुष्य तेरी वृत्ति मिथ्या आनन्द. में अत्यधिक रमती है । फल यह हुआ कि तू भत्य से त्तत्यानन्द से परातूमुख हो गया । इस मिथ्या ससार में झुठा जीव आया (ससार और जीव च्व ष्टव ही मिथ्या हैं 1) वह मिथ्या विषय-वासनाओं मे पड गया 1 इसी को न्नदृ य करके कबीर कहतें हैं कि इस मिथ्या ससार ने उसके लिये

ग्रेवेराय-वामना रूपी गंजन तैयार किया । माया रूपी झूठी थाली मे भूसा

भोजन परोसा गया और भूठे जीव ने उसमे विषय-वासना रूपी भूठे भोजन का भोग वि-या । यह उठना-बैठना एव समस्त सम्बन्ध झूठे (परमार्थ-पृ: मिथ्या) है । इन प्राकार भूठे रग में भूठा अनुरक्त हो गया है । वह सत्य तत्व पर विशवास नहीं करता है । कबीर कहते है कि हे खुदा के बच्चों (परमात्मा के पुत्री) । तुम परम तत्व स्काय सत्य में मन लगाओ और इस मिथ्या ससार के प्रति अपनी आसक्ति का न्यान कर दो । इसी से तुमको मन वाच्छित फल (मोक्ष) की प्राप्ति होगी । अहंकार---") हपक्रातिशयोक्ति एव यमक की व्यजना-यभूठा' । दिद्ररेंदृष- (1) जगत, राजीव-भाव, विषय-वासना आदि सबको-मिथ्या' कहने वाले कबीर ने प्रानंगदृतर से शकर के 'मायावाद' का प्रतिपादन किया है । (11) 'रिरुवेंद' सचारी की व्यंजना है । (आ) वैराग्य का प्रतिपादन है । ( २४७ ) कोंगा 'र्कणि गया राम फणि कोंगा न जासी, पड़ती "काया गढ माटी आसी ।। टेक ।। द्दद्र सरोमे गये नर कोडी, पांचो पांडों सरिपी जोडी । धू अनिल नहीं रहसौ ताग, चद सूर की आइसो वारा १। माहे यदृबीर जग देखि सतारा, पड़ती घट रहसी निरकाग । इ 'टार्य--द्धाद्भ-'नेध्दजाएमक्च । गटष्टपिद्रना । पाया =८गिरेश्रऱ। । थागी८-="हीं 71१४८। । कौर्दइ-दृ दो?" यों है ८दृ८८रौदृ ८१८८४ दृम्पाम्पान जगन 1 मदम बक्षी ८२८1१ तो नदंपग्गऱ का प्रतिपादन करने हें । भकृगाय दृ' चंद्र ‘ 'मृ

7 "वृध्द में कौन-पप, न्दहँ। गला ८८1४ और कौन-कौन में "' [ ने चिंकी दृद्देपृद्रपृ व्रदेंन् गये हैं 1 कौन नही च शाहा ३) दृदृर्दइनश्य पौ रि ग १३८7 डदृर्दा हाँ नौ? गिना यों जगाया ६८; हैं, छहुगाग दृगोइ; र्दइग्निद्रा ८८-१ गाँठ ८८३८ । पागा थाच्चिणी हैपी सौकुड्डदृमां दृदृणी ८३३ । क्या टभुदृद्र 'क्या ८३८ धा! नहीं मृर्रिग्ग ( दृर-द्र ८1१ ८ दृहैं -गृईदृ ८३; भी अदृम्पादृ आएगा है

४६३१३।" हुर्दद्ध हैं र्टेंदृ हुं रान. - दंग गृम्भग्रान् ८.८१ -दृनृ दृदृड्ड द्रइङ्ग दृद्धटस्सादृद्ग