यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६६४] [कबीर

                 (२३७)
 वदे तोहि बादिगी सौ कामं , हरि विन जांनि और हरांम  ।
 टूरि चलणां कूंच वेगा ,इहां नही सुकांम ॥ टॆक ॥
 इहा नही कोई यार दोस्त , गांठि गरथ न दाम ।
 एक एक संगि चनणां , बिचि नही बिश्रांम ॥
 ससार सागर विषम तिरणां , सुमीर लै हरि नांम ।
 कहै कबीर तहां जाइ राहणां नगर बसत निधांन   
 शब्दाथ वदे दास , भक्त । वदिगी =सेवा , भक्ति।हराम = शरअ
 (मृगलमान धम शास्त्र ) के विरूध्द ,निपिध्द । कूच = रवानगी। वेगा = शीघ्र। 
 मुकाम = वास स्थान , घर । गरय = सम्पत्ति। निधान = कृपानिधान , भगवान ।

  सन्दर्भ-कबीरदास सगार के प्रति उदासीन होकर भगवान को याद करने का उपदेश देते है  ।
   
  भावार्थ - रे भक्त ! तुझे तो भगवान की भक्ति से काम है । भगवान की भक्ति के 
  अतिरिक्त अन्य सब बातो को तुम निषिद्ध यानि धर्मशास्त्र के विरुध नमको ।
  तेरा गन्तव्य बहुत दूर है । अतएव यहाँ से जल्दी ही रवाना हो जाओ ।
  इस सगार मे तुम्हरे वास स्थान नही है अथवा यहा टिकासरा लेना उचित नही है।
   इस दुनिया मे तुम्हारा कोई हितैषी एव शुभचितक भी नही है और यहा पर खचं करने    
  के लिए तेरे पास विशेष सम्पत्ति भी नही है (क्योंकि तुम अपने पुण्यों का क्षय कर चुके हो) 
  तुमको इस यात्रा मे अकेले ही चलना है और बीच मे कही विराम स्थल भी नही है । इस समार रुपी
  सगार  को पार करना बुहत कठिन काम है । तुम उसको पार करने के लिए भगवान का नाम
  स्मरण करो । कबीर कहते है कि तुमको तो वहा जाकार रहना है जिस नगर मे स्वय
  क्रुपानिधान भगवान निवास करते है ।
   
   अलन्कार -(i) रुपक -  समार सगार 
            (ii) साग  रुपक - बटोही साधक का रुपक ।
    विशेष - (i) कबीर का कहना है कि भवन को सागर के प्रति एकदम 
    विगुन हो जाना चाहिए , क्योकि परम धरम की प्रप्ति ही उसका एक मात्र है।
    (iii)