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य्रर्न्थावली ]
[६५६ (२३३) मन कै मैलौ बाहरि ऊजलौ किसौ रे, खांडे की धार जन कौ धरम इसै रे ॥ टेक ॥ हिरदा कौ बिलाव नैन बग ध्यानीँ , ऐसी भगति न होइ रे प्रांनीँ॥ कपट की भगति करै जिन कोई, अत की बेर बहुत दुख होई॥ छांडि कपट भजौ राम राई, कहै कबीर तिहूँ लोक बड़ाई॥ शब्दार्थ--खाडे==तलवार ।जन==भक्त।बिलाव==बिल्ली।बग==बगुला। सदर्भ--कबीर सच्ची निश्छल भक्ति का प्रतिपादन करते है। भावार्थ--यदि मन विषय-वासना के विकारो से दुषित है,तो शरीर को साफ-सुथरा रखने से क्या लाभ है?ईश्वर-प्रेम का यह मार्ग भक्त के लिए तलवार की धार के समान है। यदि व्यक्ति का मन बिल्ली की तरह विषय-वासनाओ से ग्रसत एव हिंसा वृत्ति से पूर्ण है और वह वगुले की भाँति घोर धोखा देने के लिए आँखें बन्द करके ध्यान लगाता है ,तो हे साधक । ऐसे व्याक्ति से भक्ति नही हो सकती है । केवल धोखा देने के लिए दिखावे की भक्ति किसी को नहीं करनी चाहिए । ऐसी भक्ति के फलस्वारूप बहुत कष्ट उठाने पडते हैं। कबिरदास कहते हैं कि,हे नीव तू समस्त कपट छोड कर राजा राम का भजन करो।इससे तुम्हारा यश तीनो लोको मे फैलेगा। अलंकार--(1)विषम--मन````ऊजलौ। (11)उपमा--खाडे कौ धार । विशेष (1)वाह्माचार एक दम्भ का विरोध है तथा निर्मल मन द्वारा प्रभु भक्ति का प्रतिपादन है-- जय माला छोपै तिलक सरै न एक काम । मन कांचे नाचै वृथा साँचे राचँ राम । --बिहारी सूघे मन सूघे वचन सूघी सब करतूनि। तुलसी सूधो सकल घिघि रघुवर प्रेम प्रसूति। (गोस्वामी तुलसीदास) (11) खाडे की धार समभाव के लिए देखें-- प्रेम को कठोर महातलवार की धार पे घावनो है। (घनानन्द) ग्यान पथ कृपान की घारा ।परत खगेस होत नहिं वारा। (गोस्वामी तुलसीदास)