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६५८ ] [कबीर
() इन पद मे काव्योचित शिली मे शाकर मायावाद का प्रतिपादन किया गया है । (२६२) मीठी मीठी माया तजी न जाई, अग्यांनी पुरिष कौ भोलि भोलि खाई ॥ टेक ॥ निरगुंण सगुंण नारी, ससारि पियारी, लषमणि त्यागी गोरषि निवारी ॥ कीड़ी कुंजर मै रही समाई, तीनि लोक जीत्या माया किनहुँ न खाई ॥ कहै कबीर पद लेहु विचारी, ससारि आइ माजा किनहुँ एक कही पारी । श्ब्दार्थ-भोलि=भुलावा देकर । निवारी-निवारण किया, हटा कर दूर कर दिया । कीरी=चीटी । कुंजर=हाथी । पारी=खारी, कढुवी । संदर्भ-कबीरदास माया के सवंव्यापी प्रभाव का वर्णन करते हैं । भावार्थ-यह मधुर एवं आकर्षक लगने वाली माया किसी से छोढते नही बनती है । यह अज्ञानी व्यक्तियों को तरह-तरह के भुलावो मे डाल कर खाती रहती है । यह एक ऐसी नारी है जिसके सगुण और निर्गुण दोनो ही रूप है । यह समस्त ननार को प्यारी लगती है । लक्ष्मण ने इस माया का परित्याग किया और गुरू गोरखनाथ ने इसे अपने हृदय से हटा दिया । यह चीटी से लेकर हाथी तक मे- छोटे-छोटे प्रणी से लेकर बडे से बडे जीव मे-समा रही है । इसने तीनो लोको के प्रणियों को अपने वश मे कर रखा है । इसको कोई भी समाप्त नही कर सका है । कबीरदास केहते हैं कि इस पद मे कथित मेरे कथन पर गम्भीरता पूर्वक विचार करो । ननार जन्म लेने वाले समस्न प्रणियों को यह मधुर लगती है । कोई विरले ही इसको कबुवा बताकर इसके ओर आकर्षित नही हुआ है । लनंफार-(१) पुनरूक्ति प्रकाण-भोली-भोली । (२) निरगुण सगुण-विरोधाभास (३) नंवंषितिश्योक्ति-माया किनहुँ न खाई । विशेष-(१) वामना एवं अमत रूप होने के कारण माया निर्गुण और सर्गुण रूप नारी है । इसमे विरोधी तत्व है । (२) कबीर ने अन्यत लिया है कि- मुबना दरपन रह मेरे भाई । x x x