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६५६] कबीर

      नां हूं परनी नां हूं क्वारी,पूत जन्यूं धॉ हारी ।
      काली मूंड कौ एक न छोडचौ,अजहूं अकन कुवारी ॥
      वाम्हन कं वम्ह्नेटी कहियौं,जोगी कै घरि चेली ।
      कलमां पढि पढि भई तुरकानीं,अजहूँ फिरौं अकेली ॥
      पीहरि जांऊं न रहूं सासुरे, पुरषहि अंगि न लांऊं ।
      कहै कबीर सुनहु रे संतौ,अंगहि अग न छूवांऊं ॥
    शब्दाथ-अवधू= अबबूत,  वाम पथी मिद्ध् योगी । परनी= परिणीता, विवाहिता । क्वारी=अविवाहिता । काली मूड को कामनी ।

धीहारी= दिन दिन,नित्यप्रति। अकन=अखण्ड । कलमा= वह वाक्य जो मुसलमानो के धर्म- विशवास का मूल मन्त्र हॅ- ला इलाह इल्लिलाह,मुहम्मद रसूलिल्लाह । सन्द्रर्भ- कबीरदास माया के स्वरुप का प्रतिपादन करते हैं । भावार्थ्- हे नाथ पथी सिद्ध् योगी। तुम इस रहस्य पर विचार करो जिस्से यह ज्ञान हो सके कि चैतन्य पुरूप से इस माया-रुपी नारी का जन्म किस प्रकार हुआ? माया स्वयं कहती है कि वह न विवाहिता है और न कुमारी ही है । मै हमेशा अनेक पुत्रो को जन्म देती रह्ती हू। मुभ्फ काली मूड वाली (कामिनी) ने एक भी नवयुवक को नही छोडा है, अथार्त् प्रत्येक समझदार व्यक्ति पर अपना आवरण डाला है। इस प्रकार सबने मेरा उपभोग किया है, परन्तु फिर भी मे अखण्ड कुमरी बनी हुई हु। मेरा प्रभाव सवव्यापी है। ब्राम्हण के घर मै ब्राह्मणी कही जाती है और योगी के घर चेली हू अथार्त योगी को चेली बनकर घेरती हू। ला इलाह इल्लिलाह,मुहम्मद रसूल लिल्लाह धर्म-विशवास मूलक मन्त्र को पढ कर मुसलमान विवाह करता है और न सुसराल ही जाता हूँ - मेरा इहलोक और परलोक मे भी आना-जाना नही है। मै चैतन्य स्वरुप परम पुरप के अगो का स्पशं नही अलंकार- १) मानयीकरण- माया का।