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अपने हाथो ही चिता बनाने तथा तुरी बजाकर मोक्षघाम को जाने की बात कहती है । पूरि -दूलह -जीव की संज्ञा होना और जीव का ब्रह्म से विमुख या विलग हो जाना दोनो ही कायॆ एक साथ होते हैं।शुध्द चैतन्य माया से सपृत्त्क होते ही ॑जीव ॑ कहलाता है। माया का आवरण पड़ते ही जीव का शुध्द बुध्द आनन्द स्वरूप तिरोहिन हो जाता है।इसी से कहते हैं कि जीवात्मा चौक पर वैठते ही विधवा हो जाती है। इस स्पक मे कबीर की दाशॆनिक-दृष्टि की तीक्ष्णता सचमुच स्पृहणीय है। (२२७) धीरे धीरे खाइबौ अनत न जाइबौ,रांम रांम रांम रमि रहिबौ॥टेक॥ पहली खाई आई माई,पीछै खैहूँ सगौ जबाई। खाया देेवर खाया जेठ,सब खाया सुसर का पेटट ॥ खाया सब पटण का लोग , कहै कबीर तब पाया जोग। शब्दाथॆ-खाइबौ=नष्ट करना। अनत =अन्यत्र,और कही । माई=माता,माया से तात्पयं है।जबाई=जीब से तात्पयं है ।पटण=नगर । संदभॆ-कबीर का कहना है कि माया तथा माया से उत्पन्न विकारो पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् ही योगावस्था प्राप्त हो सकती है। भावाथॆ - कबीर कहते हैंं कि धीरे - धीरे करके माया तथा सासारिक सम्बन्धो को समाप्त करना है । उसके लिए केवल राम - नाम का स्मरण करते हुए उस परम तत्व राम मे ही रमण करना है । अन्य किसी साधना को अपनाने की आवश्यकता नहीं है। मैं इसी कल्याण मागॆ को अपनाऊँगा पहले माया - रुपी माता तथा धाय को पाया । फिर माया मे उत्पन्न विषय -वामना रुपी पुत्री के पति जीव रुपी जमाई को समाप्त किया । माथक जीव ने अहकार रुपी जेठ तथा चंचल रुपी देवर को भी पा लिया । इसके पश्चात् अज्ञान -रुपी श्यनुर के पेट मे उत्पन्न समस्त परिवार (सोम,मोह,षोध, इत्यादि )शे न्याया । इसके बाद मैने इस शरीर रुपी नगर मे माया से उत्पन्न जो अनेक विवार रुपी नगरवासी रहते थे , मैने उन सबको पाया। कबीर कहते है कि इतने विवारो पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् ही मुझे योग दश की प्राणि हुई है। अलंंकार -(१)पुनःक्ति प्र्याश -धीरे -धीरे । राम राम राम । (२)पटमैशी -खाइबौ माइबौ,खाई-खाई,माई ,जवाई।(३)स्परानिययोक्ति- आई ,माई जवाई देवर जेट

अवगुर ।   विशेष       स्यायोग -योग से योगगानना तथा ईश्वर -प्राप्ति दोनो ही अग सश्ल्यि है। (४)इतीशे के प्रयोग द्वारा सुन्दर पद पाया है।