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प्रन्याव्ली] [६४१
()नही माया-माया के ढ्रारा लिप्त होते ही देश-काल की सीमाऍं आ जाती हे। इसी से कवीर कहते है कि तुमे माया व्यप्ती नही हे और तू रुप-रेख आदि के परे बना रहता हे। ()जल मे होते-शुद चैतन्यावस्था मे मूल प्रकृति और उसमे चैतन्य के प्रतिविम्व स्वरूप जगत दोनो का अभाव रहता हे। प्रतिविम्ब का हेतु उपाधि है। अत अभाव के अभाय मे उय समय प्रतिविम्व नही होता हे। ()तेरी गति सरना--तुलना कीजिए-- सोइ जाने जेहि देउ जनाई। जानत तुम्हहिं तुम्हहिं होइ जाई। तुम्हरिह कुपा तुम्हहि रघुनन्दन। जानत भगत भगत उर चन्दन। -गोस्वामी तुलसीदास ()इस पद के नीचे लिखी गई यह टीप्पगी सर्वथा सार्थक हे--स्वगत सजातीय एव विजातीय इन तीनो प्रकार के भेदो से रहित अढ्ंत-तत्व का ज्ञान और भक्ति के मिश्रण वाली शैली मे प्रतिपादन हे। 'सदेव सोम्य अग्रे आसीत्' से तुलना कीजिए। कबीर इसमे 'सत्'भी नही कहना चाहते। यह भी निर्वचन कहना जाएगा। यह भी निर्वचन हो जाएगा। परमतत्व 'नाद'और बिन्दु से भी परे हे। इसी सवोतीत तत्व का प्रतिपादन हे। (२२०) राम कै नांइ नींसांन बागा,ताका मरम न जानै घोई । भूख त्रिषा गुण बाकै नांहीं,घट घट अंतरी सोई ॥टेक॥ बेदे बिबजित भेब बिबजित,बिबजित पाप रु पुंन्यं। ग्यांन बिबजित ध्यान बिबजित,बिबजित अस्थूल सुन्य॥ भेष बिबजित भीख बिबजित,बिबजित ङच भक रुप। कहै कबीर तिहू लोक बिबजित,ऐसा तत्त अनुपं॥ शब्दार्थ-नाइ=नाम । नीसान-निशान,नगाडा । बागा=वजता है। त्रिषा=प्यास। बिबजित=परे । डिभ=दम्भ । सन्दर्भ-कबीर दास परमतत्तव की अपरिमेयता एव निलिप्तता का वणेन करते है। भावार्थ--रामनाम का जो नगाडा बजता हे, उसका वास्तविक रहस्य कोई नही समभक्ता है, अर्थात् रामनाम के सर्वत्र व्याप्त सगीत को कोई नही समभक् रहा है। वह घट-घट मे व्याप्त है,उसको भूख प्यास आदि भौतिक आवश्यकताएँ नही सताती हें। वह वेदो से परे हे,वह समस्त भेदो (लौकिक सीमाओ) से परे हे, वह पाप-पुप्य (लौकिक नियमो) से परे है,वह जान से परे हे (सामान्य लौकिक ज्ञान (अपरा ज्ञान) के दारा उसको नही जाना जा सकता हे),वह स्थूल और शून्य (लौकिक विज्ञान, जो पदार्थ को स्थूल और सूक्ष्म की सीमाओ मे वाघता है) से परे है, न उसका कोई रुप है और न उसको इस लोक मे किसी से प्राप्त ही किया जा सकता है(वहु आत्मानुभूति का विषय है)। वह समस्त वाह्चाचारो के परे हे,अर्थात् किसि