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६३२] [कबीर के समय मेरे पास स्वानुभूति रुपी वेल मात्र है, उसके विक्षेप रुपी पत्ते नष्त हो चुके है।

   अलंकार- (१) साग रुपक -सम्पूर्ण  पद।
           (२)विरोधाभास-जीवन ...... कता, मारया...... रारव्या, वेलि पात नही।
                  (३) विभावना की व्यजना- उर बिन ..... सोई, मृग के सीस नही  रे,धुनही पिनच नही रे।
           (४) अनुप्रास -तृतोय पक्ति, व की आवृति।
    विशेष- (१) वैराग्य की कुछ साधनाओ से मन को कुचल कर विषयो से असम्पृक्त करना न उचित है और न सम्भव् ही हे। कबीरदास ने इसी मनोवैग्यानिक तव्य का प्रतिपादन किया हे। उनका कहना है कि भावनाओ का उन्नयन करके विषयो को भक्तिमय बना देना ही काम्य है।
          (२)उर बिन ..... बिहूना-मन का हृदय उसकी सरसता हे, 'खुर'आदि से व्यजित आकार भी सक्लप - विक्लप एव वासना रूप ही है। वे सब इस कुच्छ साधना से छिप गए है। ऐसे पशु का शिकार ही क्या करना, क्योकि विषयो से सचित की गई इन्द्रिया मृतवत् प्रतीत् होती है।
          (३)रगत न मारा - उस साधना मे तल्लीन मत होओ जिसमे केवल ग्यान--वैराग्य की शुष्कता  है और प्रेम भक्ति के रस का अभाव है। इन पक्तियो मे कबीर का भावुक भक्त उभर आया है।
         (४)ता बेल को- ली-विक्षेपरहित माया पर साधक मन का अधिकार होगया है-उसको वह देम भर रहा है।
          (५) तुम्हरे मिलन -- पात नही रे-अब मेरी मनस्थिति विक्षेपरहित है। पत्ते रहने पर वेन के वृक्ष को परिवेप्थिन करने मे कुछ व्यवयान रहता है, परन्तु पत्तो के अभाव मे बेल पूरी तरह से व्रिक्ष् लिपत् सकती है। अतएव विक्षेप रहिन जीवात्मा अपने माध्य प्रियतम से पूर्णतया आवद्ध(एकाकार) होने की स्थिति को प्राप्त होगई है। मायात्रहित जीव अपने पति परमेश्वर मे पूर्णत तदाकार होने को प्रन्तुत है।