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तीनो अर्थो मे गॄहीत शब्द या । (१)भु-सपशॅ आदि आग-स्थिति मुद्र,(२)कुन्दल आदि शरीर पर दारन कर्ने वालि वस्तुऍ ,(३)मतुन तथा विन्दु रक्शा के तात्रिक अनुष्टानो के लिए स्वकृत सह-साविका नारी। कवीर इन तीनो को तत्व प्राप्ति का सधन नही मानते। ऐसी श्र्गी और खपरा के बाह्य रूप भी तच्व प्राप्ति के नाधन नही। अत कबीर इन्को आध्यात्मिक अर्थ दे रहे हैं।"

    वावा जोगी एक अकेला,
              जाकं तीर्थ ब्रत न मेला॥ टके॥
    झोली पत्र बिभूती न बटवा, अनहद बेन बजावै॥
    मंगी न खाइ न भूखा सोवै घ्रर अगनां फिरि आवै॥
    पांच जनां की जमाति चलावै,तास गुरू मै चेला॥
    कहै कबीर उनि देसि सिजघाये,बहुरि न इहि जगि मेला॥
    शब्दार्थ--पच जना =पाँच ज्ञानेन्दियाँ । जमात=समुह।

चलावै=नियवित करता है।

        सन्दर्भ-कबीरदास सिध्द योगी का वणंन करता है ।
        भावार्थ-योगी ससार मे अपने ढग का एक अनोखा व्यक्ति होता है । उनको तीर्थ, व्रत , मेला इत्यादि से कोई प्रयोजन नही होता है । उसे भोली,पत्र,वदुआ,विभूति आदि बहिरग साधनो की कोई आवश्यकता नही होती है । वह न तो भीख मांगता है और न भूखा ही मोता है। वह  घट 

रुपी घर के हृदय रुपी आंगन मे ही वापिस आ जाता है अर्थात वह सब और से अपना मन हटा कर आरम स्वरुप मे म्यित हो जाता है । वह अपनी पांचो ज्ञानेन्द्रियो के समूह को अपने नियन्त्र्ण मे रखता है । कबीरदास ऐसे हो योगी के चेले बनने को नँय्यार है,जो अपनी माधना के द्वरा इस ससार को छोडकर अस देश को चले नये है अर्थात जिन्होने पनमनरय क माक्षालार कर लिया है और पुन इस ससार मे नही आएगें अर्थात जो आवागमन के चक मे फिर नही पडेगें ।

         अलंकार- नेदकातिशयोक्ति की व्यजना-एक अकेला ।
                 रुपक-अनहद बेन ।
                 चिगेघानाम-मागी खाड मूका ।
                 नापगतिशयोनी-पाच जना ।
          विशेष- हम पढ मे भी वाघ माधना के प्रतीको(नीयै,व्रत,मेला,न्नेमी,विभूति,येम)को

वाय्यन्तर न्मायना-परक अयै दिए गए है ।

                णन्म स्वरुप एवं निन्मृत्ता योगी के प्रक्षण है ।