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वली

आक्षात्कार करता है। बाहर से दिखाई देने वाली गुदडी वस्तुतः योगी के शरीर रतीक हॅ। उसकी लकडी नामक 'अधारी' वह आधार है जिसमे अवस्थित होकर परम तत्त्व की साधना करता है । उसी मूल तत्त्व मे उसकी प्राण-प्यारी मूर्ति जमान है। वे प्रभु जीव के सदेव पास(हृदय) मे ही रह्ते हैं,परन्तु जीव उनको र-उधर (अपने आप से पृथक स्थलो मे) खोजता रहता है। अनह्द नाद रूपी अन्त करण(सहरूणर)रुपी गुफा मे उपलब्ध है,परन्तु जीव श्रूगी मे शब्द के उस अनह्द नाद को सुनना चाहता है अर्थात् वह अपने स्वरुप मे प्रतिष्ठित की अपेक्षा गृगीनाद क श्रवण करता है। अभिप्रेत अर्थ यह है कि इस प्रकर योगी आत्म स्व्स्प मे प्रतिष्ठित होने की अपेक्षा वहिरण मे ही उल्झा रह्ता परन्तु जो साधक ज्ञान और भत्कि रुपि महारस की अमर बेलि के रस को क्षण पीता रहता है,वह अमरत्व को प्राप्त होत है।

अलकार- (१)छेकानुप्रास-जोगिया जुगति।

       (२)रुपकातिशयोत्कि- क्था,अदारी,गुफा।
       (३)रुपक- अमर बेलि
       (४)पनुरुत्कि प्रकाश- छिन छिन,जुगि जुगि।

विशेष- (१)कथा, श्रृगी,आधारी-ये योगियो की साधना एव वेष के री उपरण हैं।

(२) कबीर ने अपने स्वभावानुसार इस पद गे भी वाहाचार के प्रति विरोध किया है।

(३) है प्रभु दूरि-तुलना करे-

        कस्तूरी कुंड्ल बसे,मृग ढूढै बन माहि।
        एसे घट घट राम हैं,दुनियां देखे नाहि। - कबीरदास
                अपुनपो आपुन ही में पायो।
   राजकुमारि कंठ मनि-भूषन,भ्रम भयौ,कहूँ गवायो।
   दियो बताइ और सिखयन,तब तन को ताप नसायो। - सूरदास

(४) राम रमै सूभ्ँ- प्रभु का साक्षात्कार विश्व-चेतना की प्राप्ति की है। श्रीमढ्भगवढ्गीता के 'विश्वरूप-दशंन योग' के अन्तर्गत यही बात स्पष्ट है। भगवान राम के मुख मे प्रविष्ट करने वाले कागभुसु डि भी समस्त ण्ड क दर्शन करते है-

उद्स साभु सुनु अड्ज राजा। देखेउँ बहु ब्रह्माड निकाया।

भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान। अगनित भुवन फिरेउ प्रभु राम न देखेउँ आन।

तब ते मोहिं न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया (रामचरितमानस)