षट-चऋ-वेधन-जो कि प्रकारान्तर से शरीर-साधन ही है- के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति होती है|
(ii)अनहद नाद के लिए देखें टिप्प्णी पद स ं १५७ (iii)शून्य के लिए देखे टिप्प्णी पद स ं १६४ (iv)ञिकुटी के लिए देखे टिप्पणी पद स ं ७ (v) भँवर गुफा के लिए देखे टिप्प्णी पद स ं ३,४ (vi)ज्यूँ नाले राषी रस महया- साधक के वित के परमात्म तत्व के साथ मिलकर एक हो जाने की तुलना प्राय नाले के पानी के गगाजल मे मिल जाने से की जाती है|भक्त कवियो ने भी इस प्रकार का कथन प्राय किया है|
यथा -हमारे प्रभु!औगुन चित धरौ|
इक नदिया इक नार कहावत,मैलो नीर भरौ| जब मिलिगे तब एक बरन मे,सुरसरि नाम धरौ|-महत्मा सूरदास
(vii)'उलटि कँवल' का अथ कुछ टीकाकारो ने इस प्रकार किया है-"इस प्रकार कुणडलिनी के नीचे से ऊपर चलने के कारण-उलटे मार्ग द गोविद से सहसऋदल मे भेट होती है|"हमारे विचार से यह अथ उचित नही है| चन्द्र प्रक्रिया का सम्यक् ज्ञाण न होने के कारण ही इस प्रकार के अर्थ की सम्भावना की जा सकती है । चत्रक् वस्तुत कुण्डलिनी के शक्ति कैन्द्र ( Transformers ) है।इन्की बनावट सीघी तश्तरी ( concave ) मानी जाती है । जब चऋ गतिशील होता है,तो उलटा (convex)हो जाता है और कुण्ड्लिनी की शक्थि को अगले चऋ मे प्रषित कर देता है|स्पष्ट है कि जब सहस्रदल कमल चऋ पूणतया गतिशील होगा,तब वह भी उलटा (convex)हो जाएगा और तभी ब्रहा ज्योति का साश्रात्कार होगा- तभी mind और supramental का सम्बन्ध स्थापित होगा|गोतम वुद्ध प्रभ्रुति सिद्ध पुरुषो की प्रतिमाओ,मुतियो आदि मे सिर के ऊपर एक गुमटी सी निकली हुई रहती है| यह गुमटी उलटे हुए(convex) सहस्त्रार चऋ घोतन करती है|
(२०३)
मन का भ्रम हो थे भागा ,
सहज रुप हरि खेलण लागा ॥ टेक ॥ मै तै तै मै ए द्वै नाहो, आपै अकल सकल घत मांहीं ॥ जब थे इनमन उनमन जांनां , तब रुप न रेश ताहां ले वांनां । तन मन मन तन एक समांनां , इन अनभै माहै मन मांहां ॥ आतमली अषङित रांमां कहै कबीर हरि मांहि समांनां ।
शब्दार्थ - हरि = आत्माराम ,परमात्मा । उनमन = मन की आवस्या विशेप । रुप-न-रेख = रुप रेख । याना = आकार । अनभै = अभय । सदर्भ - कबीरदास सिध्दावस्था का वर्णन करते है ।