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६१४] [कबीर

देता है। गाय घास खाकर अमृतोपम दूध देती है अौर इसको चाटकर सपं भी बल प्राप्त करता है- उसके भी विष की वृध्दि होती है। अभिप्रेत अर्थ यह है कि दुष्ट जन अचछी से अचछी वात का दुरुपयोग करते है। अनेक प्रकार के उपायो द्वारा वासना को दमन करने पर भी विषयो के प्रति आसक्ति नि.शेष नही हो पाती है। जो साधु-वेप धारण करके भी दुष्टो की सगती करता है, उसके लिए कया कहा जाए और क्या किया जाए? कबिरदास कहते है कि जो व्यक्ति भगवान राम मे पूर्ण रूप से अनुरक्त होते हें, उनही का मोह भ्रम नष्ट होता है।

         अलंकार - (१) सम्वन्धातिशयोक्ति - राम जाई।
                  (२) पदमैत्री- जस तस|
                  (३) हष्टान्त-कहता न जाई|
                  (४)विशेपोक्ति-अनेक जाई ।
                  (५) रूपकातिशयोक्ति-अमृत, भवगम।
                  (६) सभग पद यमक-सन्त असन्त।
                  (७)गूढोक्ति-तासू बसाई।
  विशेष-जैसी कहै अपारा।
  तुलना कीजिए-

कर्म प्रधान विश्व कर राखा। जो जस करइ सो तस फल चाखा। तथा- परउपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।

                                      (गोस्वामी तुलसीदास्)
                            (२०१)
  कथणीं बदणीं सब जंजाल,
        भाव भगति अरू रांम निराल॥ टेक॥
     कथै बदै सुरगै सब कोई, कथे न होई कीयें होई।
     कूडी करणी राम न पावै, साच टिकै निज रूप दिखावै॥
     घट मै अग्नि घर जल अवास, चेति वुझाइ कबीरादास।
शब्दार्थ- कथणी==कहना, धर्मोपदेश। वद्रणी-देश सम्बन्धी आचरण अर्यान वाहोपचार। कूडी=निकामी, व्यर्थ की। करणी=आचरण। बदै=विवाद, अवाम=निवारा स्वान। अग्नि =वासनाओ की अग्नि। जल=आनन्द रूपी जल। 

संदर्भ-कबीरदास कहते हैं कि आत्म-ज्ञान के द्वारा ही कल्याण सम्भव है।