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ग्रन्थावली] [६१३

तत्व मानने के भ्रम में भूला हुआ है| कबीर कहते हैं कि कोई बिरला ही सव में रमने वाले राम को भजता है और भवसागर के पार उतरता है|

           अलंकार-(१) अनुप्रास--सेइ समधि समर्थ सरणागता|
                  (२) सम्बन्धातिशयोक्ति-कोई न पावै|
                  (३) चपलातिशयोक्ति कोटि-आवै|
                  (४)रूपक-पाप-अकुर|
                  (५)गूढोक्ति-त्रितभ लहैं|
       विशेष-(१)निर्गुण निरुपाधि भ्रह्म का प्रतिपादन है| समस्त साकार जगत (त्रिमूर्ति तक)उसी एक परम तत्व का अभिव्यक्त रूप है|
        (२२) जास का सेवक        जाही|-तुलना करें-
             यो यो यां या तन्रुं भक्त श्रध्दायार्चितुमिच्छ|
             तस्य तस्याचलां श्रद्धातामेव विदधाम्यहम्ं|
             बहूना जन्म नामन्ते ज्ञानवान्सां प्रपधते|
             वासुदेव सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ|
                                      (श्री भगवद्गीता ७/२१,५)
                            (२००)

राम राइ तेरी गति जांणीं न जाई| जो जस करिहै सो तस पहहै, राजा रांस नियाई| टेक|| जैसी कहै करै जो तैसी, तौ तिरत न लागै बारा कहता कहि गया सुनता सुंणि गया,करणीं कठिन अपारा|| सुरही तिण चरि अमृत सरवै, लेर भवगहिं पाई| अनेक जतन करि निग्रह कीजै, बिषै बिकार न जाई|| संत करै असंत की सगति, तासू कहा बसाई| कहै कबीर ताके भ्रम छूटै, जे रहे रांम ल्यौ लाई|| शब्दार्थ-नियाई=न्यायी,न्यायकर्ता| सुरही=सुरभी, गाय| तिण=तृण,घास| असृत=अमृत,दूध| सखै=सुवित करती है| लेर=लार की तराह जमीन पर टपकने वाली कोई भी वस्तु| पृथ्वी पर गिर जाने वाले दूध को सर्प चाट लेत है| भवगहि=सर्प| निग्रह=दमन, निवारण| लौ=सच्ची लग्न| संदर्भ-कबीरदास भगवद प्रेम का प्रतिपादन करते हैं| भावार्थ-हे जगत के स्वामी राम, तेरी लीला किसी की समभ्त में नहीं आती हैं|परन्तु एक बात अवश्य है|तुम बडे न्यायकारी हो| जो जैसा करता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है| व्यक्ति जैसा करता है, यदि वैसा ही करे, तो उसको इस भवसागर से पार उतरते देर न लगे| परन्तु इस संसार में प्राय ऐसा देखा जाता है कि उपदेश देने वाला उपदेश दे जाता है और सुनने वाला सुन लेता है, परन्तु इसके अनुसार आचरण करने वाला अत्यन्त कठिनाई से दिखाई