६०८] [ कबीर
(१११)छेकानुप्रास--गगन गाजै, चित चेतन ।
(४)पदमैत्री-खडू बिहडू 1 आऊ जाऊँ ।
विशेष-(१) प्रतीकों का प्रयोग है ।
(२) कार्यायोग के साधनों से आध्यात्मिक आनन्द की प्राप्ति तथा उन
प्रतीकों के माध्यम से आध्यात्मिक साधना का वर्णन है ।
(३) अनहद नाद-- देखें टिप्पणी पद सख्या १५७ ।
(४) शून्य- देखें टिप्पणी पद संख्या १६४ ।
(५) नाद विदु- देखे टिप्पणी पद सख्या १८ 1
(६) वाहोपचारों का विरोध है ।
७) सालिगराम" ’ काटों- कहता यह है कि कबीर शालिगराम की पूजा छोडने से कबीर का तात्पर्य यह है कि वह सीमित तत्व की औपचारिक उपासना का त्याग कर देंगे और व्रह्यादिक जो माया जनित देव हैं, उनका अस्तित्व ही मिटा देंगे ।
(८) सायर फोडि ' "पाटो-मूलाधार चऋ के जल का शुन्य-शिखर के सरोवर-जल से सम्मिलन करूंगा अर्थात् विपयानंद को साधनाज़न्य आनद एवं आध्यात्मिक आह्नद्रद में समाहित कर दूँगा । गगन कूप की बूँदो को टपक-टपक कर चष्टाग्नि में भस्म नहीं होने दूँगा अर्थात् उसकी शक्ति को विषय-वासनाओं में नष्ट नहीं होने दूँगा । उससे आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करता रहूँगा ।
(८) बन वन डोल | तुलना करें-
कस्तुरी कुण्डल बसै मृग ढुन्ढे वन माहि । ऐसे घट घट राम हैं दुनियाँ देखे नांहि । (कबीरदास)
( ११७ )
वावा पेड़ छाडि सब डाली लागे, मून्ढे जंत्र अभागे ।
सोइ सोइ सव रैणि विहांणी, भोर भयौ तब जागे । । टेक ।।
देवलि जाऊ तो देवी देखों, तीरधि जाऊ त पाणी ।
ओछो वुधि अगोचर वाणी, नहीं परम गति जांणी ।।
साध पुकार समझत नांही, आन जन्म के सूते ।
वाघ ज्यू अरहट की टोडरि, आवत जात विगूते ।।
गुर दिन इहि जग कौने भरोसा, काकै सगिह्" रहिये ।
गनिका के धरि बैटा जाया, पिता नांव किस कहिये ।।
कहे कयीर यह चित्र विरोध्या, बूझो अंमृत बाणी ।
खोजत खोजत् सतगुर पाया, रहि गई आंवण जांणों ।
शब्दार्थ-मूनं यन्तु । पन्मतत्त्व, ब्रहा । डाली= शाखाएँ-=अन्य देयता व्यक्त ज्ञाप 1 हृ २प्र-टामूर्ण । १८" ऊंणरौटु दृययमान जगत|